Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वैयाकरण-सिदान्त-परम-लघु-मंजूषा
'यात्मानम् पात्मना वेत्ति' इस प्रयोग में एक ही प्रात्मा अथवा चैतन्य को तीन विभिन्न रूपों में प्रकट किया गया है। शरीर से अवच्छिन्न अथवा शरीररूप प्रात्मा को 'कर्ता', अन्तःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार) रूप आत्मा को 'करण' तथा निरीह, निष्क्रिय एवं विशुद्ध आत्मा को 'कर्म' माना गया । इसलिये 'प्रोपाधिक' भिन्नता के कारण एक में ही उपस्थित होने वाली इन तीनों संज्ञानों में कोई विरोध नहीं उपस्थित होता । तुलना करो-"द्वाव् आत्मानौ । अन्तरात्मा शरीरात्मा च । अन्तरात्मा तत् कर्म करोति येन शरीरात्मा सुख-दुःखे अनुभवति । शरीरात्मा तत्कर्म करोति येनान्तरात्मा सुखे अनुभवति" (महा० ३.१.८७)।
शब्दालिङ्गतस्य .. भासते :-शब्दरूप 'उपाधि' के द्वारा अर्थ में भिन्नता उत्पन्न होने का कारण यह है कि सदा शब्द के माध्यम से ही अर्थ का प्रकाशन होता है । कभी भी, शब्द की सहायता के बिना, स्पष्ट एवं सरल रूप में, अर्थ का प्रकाशन सम्भव नहीं
इस कथन की पुष्टि में नागेश ने महान् शब्द-मनीषी भर्तृहरि की एक कारिका को यहाँ प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है, जिस में यह कहा गया है कि विश्व में ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो शब्द की सहायता के बिना प्रकट हो । सारा ज्ञान विज्ञान शब्द से अनुस्यूत हो कर प्रकाशित होता है। यहाँ कारिका में जो 'इव' शब्द का प्रयोग है वह इस बात को बताने लिये है कि ज्ञान में जो शब्द का तादात्म्य या अभेद सम्बन्ध है वह पारोपित है।
वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड में इस प्रकार की अनेक कारिकाएँ मिलती हैं जिन में यह प्रतिपादित किया गया है कि सम्पूर्ण अर्थ शब्द से ही प्रकाशित होते हैं या शब्द पर आश्रित हैं। इस दृष्टि से निम्न कारिकायें द्रष्टव्य हैं :
षड्जादि-भेदः शब्देन व्याख्यातो रूप्यते यतः । तस्मात् अर्थ-विधाः सर्वाः शब्दमात्रासु निश्रिताः ।। १.११८ वागरूपता चेन् निष्कामे प्रवबोधस्य शाश्वती। न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी ।। १.१२३ सा सर्व-विद्या-शिल्पानां कलानां चोपबन्धनी। तद्-वशाद अभिनिष्पन्नं सर्व वस्तु विभज्यते ॥ १.१२४
['औपाधिक' भेद से उत्पन्न अर्थ-भेद के द्वारा 'प्रपादान' संज्ञा की सिद्धि हो जाने पर परिभाषा में 'तत्-तत्-कर्तृ-समवेत' इस अंश को प्रावश्यकता पर विचार]
ननु येतद् औपाधिक-भेदम् आदायैव अत्र अपादानत्वे सिद्धे किं 'तत्-तत्-कर्तृ-समवेत' इत्यनेन इति चेत् ? न । 'पर्वतात् पततोऽश्वात् पतत्यश्ववा'हः' इत्यादौ अश्वस्य अपादानत्वाय तत्स्वीकारात् ।
For Private and Personal Use Only