Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा ___"संसार में ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो (उस ज्ञान के बोधक) शब्द के बोध के बिना हो । सम्पूर्ण ज्ञान शब्द से भानो अभिन्न हो कर भासित (प्रकट) होता है।
___'वृक्षं त्यजति खगः' इत्यादा""प्रकृत-धात्ववाच्य' इति-ऊपर 'अपादान' कारक की परिभाषा में 'प्रकृत-धात्ववाच्य' (ऐसे विभाग के प्राश्रय की 'अपदान' संज्ञा अभीष्ट है जो प्रस्तुत या उच्चरित धातु वाच्य अर्थ न हो) पद का प्रयोजन यहाँ यह बताया गया कि 'वृक्षं त्यजति खगः' इत्यादि प्रयोगों में 'वृक्ष' की 'अपादान' संज्ञा न हो जाये । अन्यथा 'अपादान' कारक का लक्षण यहाँ घटित हो जाता जिससे 'अतिव्याप्ति' दोष उपस्थित होता । परन्तु इस विशेषण के रहने पर, विभाग यहाँ उच्चरित या प्रयुक्त 'त्यज्' धातु का वाच्यार्थ है इसलिये, वृक्ष की 'अपादानता' का निवारण हो जाता है।
परन्तु इस विशेषण के बिना भी उपयुक्त प्रयोग में 'वृक्ष' की अपादानता' का निवारण हो सकता है । भाष्य का वचन है-"अपादानम् उत्तराणि कारकारिण बाधन्ते", अर्थात् अष्टाध्यायी के सूत्र-क्रम के अनुसार बाद में विहित 'कर्म' आदि कारक 'अपादान' कारक की अपेक्षा बलवान होते हैं तथा 'अपादान' को बांध लेते हैं। भाष्य के इस वचन या परिभाषा के आधार पर "कुर्तुर् ईप्सिततमं कम" (पा० १.४.४६) सूत्र द्वारा 'वृक्ष' को 'कर्म' कारक ही माना जायगा क्योंकि वह त्यजन 'व्यापार' से उत्पन्न विभाग रूप 'फल' का आश्रय है। इस प्रकार 'कर्म' कारक के द्वारा बाधित हो जाने पर 'वृक्ष' की 'अपादानता' का निवारण स्वयं हो जाता है । तुलना करो-"न चैवम् अपि 'वृक्षं त्यजति' इति दुर्वारम् । कर्मसंज्ञया अपादान-संज्ञाया बाधेन पंचम्यसम्भवात्" वैभूसा. (पृ० २०१-१०२) ।
___ 'परस्परस्परस्मान् मेषाव अपसरतः'... तयोर्भेदः -... 'अपादान' कारक की परिभाषा में क्रिया के विशेषण के रूप में, 'तत्-तत्-कर्तृ' अंश रखा गया है। इस से यह अभिप्राय निकलता है कि---- "उस 'कर्ता' में 'समवाय' सम्बन्ध से रहने वाली जो किया उससे उत्पन्न जो विभाग उस विभाग का आश्रय 'अपादान' कारक होता है।" इस विशेषण को परिभाषा में रखने का क्या प्रयोजन हैं इस विषय में यहाँ विचार किया गया है।
'परस्परस्मान् मेषाव अपसरतः' इस वाक्य का अर्थ है कि 'दो भेड़ें एक दूसरे से पीछे हटते हैं। यहाँ पहला भेंड़ दूसरे भेंड़ की अपसरण (पीछे हटना) क्रिया की दृष्टि से 'अपादान' कारक है तथा दूसरा भेड़ पहले भेड़ की अपसरण क्रिया की दृष्टि से । पहले भेड़ को 'अपादान' मानते समय दूसरे भेंड़ रूपी 'कर्ता' में जो अपसरण क्रिया 'समवाय' सम्बन्ध से रहती है उससे उत्पन्न विभाग के आश्रय के रूप में पहली भेंड़ विवक्षित होती है तथा दूसरी भेंड़ को 'अपादान' मानते समय पहले भेंड़ रूपी 'कर्ता' में जो अपसरण क्रिया 'समवाय' सम्बन्ध से रहती है उससे उत्पन्न विभाग के आश्रय के रूप में दूसरी भेड़ विवक्षित होती है। अत: यहाँ दोनों ही भेड़, एक दूसरे की दृष्टि से, अपसरण 'व्यापार' का आश्रय होने के कारण 'कर्ता' हैं तथा दोनों ही अपसरण किया से उत्पन्न विभाग रूप 'फल' का प्राश्रय होने के कारण एक दूसरे के प्रति 'अपादान' भी हैं। इस तरह अपने से भिन्न भेंड़ में 'समवाय' समम्बन्ध से विद्यमान
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