Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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कारक - निरूपण
३५७
तत्-तत्-पशु- विशेष -निष्ठ व्यापार - जन्य-विभागाश्रयस् तत्तत् - पशु- विशेषः । किंच 'मेष' - पद - वाच्ययोः पशु- विशेषयोः क्रियाऽऽश्रयत्व-विवक्षा, 'परस्पर' - पद-वाच्ययोस् तयोस्तु विभागाश्रयत्व विवक्षा इत्यौपाधिकस् तयोर् भेदः । शब्द-स्वरूपोपाधि-कृत- भेदोऽप्यर्थे गृह्यते । यथा'ग्रात्मानम् ग्रात्मना वेत्ति' इत्यादौ शरीरावच्छिन्नं 'कर्ता',' प्रन्तःकरणावच्छिन्नं 'करणम्' निरवच्छिन्नं निरीहं 'कर्म' । एकस्यैव शब्द भेदाद् भेदः । शब्दालिङ्गितस्यैव सर्वत्र भानात् । तद् ग्राह—
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न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाद् ऋते । श्रनुविद्धम् इव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ।। ( वाप० १.१२२ )
१. ह० - तयोरेवं ।
२. ह० -- आत्मनात्मानं वेत्सि ।
'वृक्षं त्यजति खगः ' ( पक्षी वृक्ष को छोड़ता है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'अपादान' संज्ञा के निवारण के लिये 'प्रकृत धात्ववाच्य' ( उच्चरित धातु का जो वाच्य अर्थ न हो) यह (विशेषरण परिभाषा में रखा गया है । परस्परस्मान् मेषाव् अपसरत:' (दो भेड़ें एक दूसरे से अलग होती हैं) यहां 'अपादानत्व' की प्राप्ति के लिये ( परिभाषा में) 'तत् तत् कर्तृ' ('उस उस भिन्न भिन्न कर्ता में यह विशेषरण) है | उस उस पशु (भेंड़) विशेष में विद्यमान (अपसरण रूप ) 'व्यापार', से उत्पन्न होने वाले विभाग का आश्रय वह वह ( भिन्न भिन्न ) पशु (भेंड़ ) विशेष है । तथा द्विवचनान्त 'मेष' पद के वाच्य दो पशु विशेषों (भेंड़ों) में ( अपसरण) क्रिया की प्राश्रयता ('कर्तृत्व ) की विवक्षा है । परन्तु परस्पर' पद के वाच्यभूत उन दोनों (भेड़ों) में विभाग की श्राश्रयता ( 'अपादानत्व') की विवक्षा है । इस रूप में दोनों ('कर्ता' तथा 'अपादान' ) में विशेषरण - कृत भिन्नता है । शब्द-स्वरूप भूत 'उपाधि' (विशेषण या अर्थ- प्रकाशक) के द्वारा उत्पादित भेद भी अर्थ में गृहीत होता है । जैसे- 'प्रात्मानम् आत्मना वेत्ति' (ग्रात्मा को आत्मा से जानता है) इत्यादि (प्रयोगों) में शरीर से अवछिन्न (प्रात्मा) 'कर्ता' है । प्रन्तःकरण ( मन, बुद्धि तथा अहंकार) से अवच्छिन्न आत्मा 'करण' ( साधन ) है तथा शुद्ध निष्क्रिय (ब्रह्म) 'कर्म' है एक ही (तत्त्व) में शब्द की भिन्नता के कारण (अर्थ में) भेद हो जाता है क्योंकि शब्द से परिवेष्टित ( अथवा अभिन्न) हुए अर्थ का ही बोध होता है। इस बात को ( भर्तृहरि ने ) कहा है :
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