Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
ननु दानादीनां 'इति चेत् : यहां यह प्रश्न किया गया है कि "चतुर्थी विधाने तादर्थ्य उपसङ्ख्यानम्,” ('तादर्थ्य' में भी चतुर्थी विभक्ति का विधान करना चाहिये), इस वार्तिक से ही 'ब्राह्मणेभ्यो गां ददाति' जैसे उन सभी प्रयोगों में, जिनमें "कर्मणा यम् अभिप्रैति०" सूत्र से 'सम्प्रदानं' संज्ञा करके उसके आधार पर "चतुर्थी सम्प्रदाने" सूत्र द्वारा चतुर्थी विभक्ति प्राप्त की जाती है, 'सम्प्रदान' संज्ञा का सहारा लिये बिना ही, चतुर्थी विभक्ति की सिद्धि हो जाती है । वह इस रूप में कि 'तादर्थ्य' शब्द की व्युत्पत्ति-'तस्मै इदं तदर्थम् । तदर्थस्य भावः तादर्थ्यम्' । अतः इस शब्द का अभिप्राय है जिसके लिये जो हो । जैसे---'यूपाय दारु' (यूप के लिये काष्ठ) या 'कुबेराय बलिः' (कुबेर के लिये बलि)। इस प्रकार जिसके लिये वस्तु होती है उस 'उद्देश्य' में चतुर्थी विभक्ति का विधान यह वातिक करती है । 'ब्राह्मणेभ्यो गां ददाति' जैसे प्रयोगों में भी, ब्राह्मण आदि के लिये गौ प्रादि वस्तुएँ दी जाती हैं। इसलिये, इस वार्तिक से ही चतुर्थी विभक्ति की सिद्धि हो जायगी । “कर्मणा यम् अभिप्रति०" सूत्र अथवा उसके द्वारा 'सम्प्रदान' कारक की परिभाषा बनाने की क्या आवश्यकता ? ____यदि इस प्रश्न के साथ ही यह कहा जाय कि जब "कर्मणा' यम् अभिप्रति०" सूत्र अनावश्यक है तो फिर "चतुर्थी सम्प्रदाने" सूत्र की भी क्या आवश्यकता? तो इसका उत्तर यह है कि 'सम्प्रदान' संज्ञा का विधान करने वाले अन्य "रुच्यर्थानां प्रीयमाणः" इत्यादि सूत्र भी हैं। उनके उदाहरणों में चतुर्थी विभक्ति का विधान करने के लिये "चतुर्थी सम्प्रदाने' सूत्र की तो आवश्यकता है।
उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर यहां यह दिया गया है कि दान किया के 'कर्म' गौ आदि भले ही ब्राह्मण आदि के लिये हों परन्तु दान क्रिया, ब्राह्मण के लिये न होकर, परलोक या स्वर्ग की प्राप्ति के लिये होती है। अभिप्राय यह है कि दान देने वाले लोग ब्राह्मण आदि को जो दान देते हैं उनका प्रयोजन स्वार्थ ही होता है । जो लोग स्वर्ग आदि में विश्वास रखते हैं वे स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिये दान आदि कार्यों को करते हैं। जिन लोगों का स्वर्ग आदि में विश्वास नहीं होता वे भी अपनी सन्तुष्टि के लिये निधन आदि को दान देते हैं । इसलिये दान किया, जिसको दान दिया जाता है उसकी दृष्टि से न होकर, दाता की अपनी दृष्टि से ही होती है, अर्थात् ब्राह्मण आदि के लिये न होकर अपने लिये होती है। इसलिये "चतुर्थी विधाने तादर्थ्य उपसङ्ख्यानम्" इस वार्तिक की सीमा में ये उदाहरण नहीं पाते । अत: 'ब्राह्मणाय गां ददाति' जैसे प्रयोगों में "चतुर्थी विधाने तादर्थे उपसख्यानम्" इस वार्तिक से चतुर्थी विभक्ति की प्राप्ति नहीं होगी। इस कारण "चतुर्थी सम्प्रदाने" तथा 'कर्मणा यमभिप्रति स सम्प्रदानम्” इन दोनों सूत्रों की आवश्यकता है।
इसके अतिरिक्त "दाशगोध्नौ सम्प्रदाने" (पा० ३.४.७३) सूत्र रचना की दृष्टि से भी तो 'सम्प्रदान' कारक के स्वरूप-निर्धारण की आवश्यकता है ही। अन्यथा उस सूत्र में 'सम्प्रदान' शब्द का क्या अभिप्राय है यह कैसे पता लगेगा?
तीसरा प्रयोजन यह भी है कि “ब्राह्मण आदि हैं 'सम्प्रदान' हैं जिसमें ऐसी दान प्रादि क्रिया" का बोध हो इसलिये भी यह आवश्यक है कि 'सम्प्रदान' कारक के स्वरूप को बताया जाय । उपर्युक्त इन तीनों प्रयोजनों का उल्लेख नागेश ने “चतुर्थी सम्प्रदाने" (पा० २.३.१३) सूत्र के भाष्य की अपनी 'उद्द्योत' टीका में निम्न शब्दों में किया है :---
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