Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धांत-परम-लघु-मजूषा
इस उदाहरण के साथ एक दूसरा 'चैत्रो मैत्राय वार्ताः कथयति' यह उदाहरण भी दिया गया, जिसमें 'दान' क्रिया न होकर 'कथन' क्रिया है। इसके 'कर्म' वार्ता के साथ सम्बन्ध करने के लिये 'कथन' क्रिया उद्देश्य के रूप में मैत्र को प्रस्तुत किया गया।
[इस प्रसंग में वृत्तिकारों का भिन्न विचार]
यत्त वत्तिकाराः- "सम्यक प्रदीयते यस्मै तत् सम्प्रदानम्' इत्यन्वर्थ-संज्ञेयम् । तथा च गो-निष्ठ-स्व-स्वत्व-निवृत्तिसमानाधिकरण - पर - स्वत्वोत्पत्त्यनुकूल-व्यापाररूपक्रियोद्देश्यस्य ब्राह्मणादेर् एव सम्प्रदानत्वम् । पुनर ग्रहणाय रजकस्य वस्त्रदाने 'रजकस्य वस्त्रं ददाति' इति
सम्बन्धसामान्ये षष्ठ्येव"-इत्याहुः । वृत्तिकार जो (यह) कहते हैं कि-"जिस के लिये अच्छी तरह दिया जाय है वह 'सम्प्रदान' है, इस रूप में यह 'सम्प्रदान' अन्वर्थ संज्ञा है। इस तरह गाय में रहने वाले अपने अधिकार के त्याग के साथ, समान-अधिकरण वाले, दूसरे के अधिकार की उत्पत्ति के अनुकूल 'व्यापार' रूप (दान) क्रिया के उदेश्यभूत ब्राह्मण आदि की ही 'सम्प्रदान' संज्ञा है। (इसीलिये) पुनः ले लेने के लिये धोबी को वस्त्र देते समय 'रजकस्य वस्त्रं ददाति' यहाँ (रजक: की 'सम्प्रदान' संज्ञा न होने के कारण उसके साथ) सम्बन्ध-सामान्य में षष्ठी (विभक्ति) हुई
'सम्प्रदानकारक' की परिभाषा के प्रसंग में यहाँ नागेश ने कुछ प्राचीन वृत्तिकारों के मत को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किया है। इन वृत्तियों में आज केवल काशिका वत्ति ही उपलब्ध है। काशिकाकार ने “कर्मणा यम् अभिप्रेति स सम्प्रदानम्" (पा. १.४.३२) इस सूत्र की व्याख्या करते हुए केवल इतना ही कहा है कि "अन्वर्थ-संज्ञाविज्ञानात ददाति-कर्मणा इति विज्ञायते'', अर्थात् 'सम्प्रदान' शब्द के अन्वर्थसंज्ञक होने के कारण, पाणिनि के उपर्युक्त सूत्र में विद्यमान, 'कर्मणा' पद का अभिप्राय है केवल 'दा' धातु का 'कर्म' और वह भी ऐसी 'दा' धातु जिसका प्रयोग अच्छी तरह, फिर कभी न लेने के लिये, या आदर आदि के साथ देने के अर्थ में किया जाय । काशिका की व्याख्या (काशिका-विवरणपञ्जिका अथवा न्यास), में इस अन्वर्थकता को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि-"सम्यक् प्रकर्षेण दीयते यस्मै तत् सम्प्रदानम्" अर्थात् 'सम्प्रदान' शब्द का अर्थ गया है जिसके लिये अच्छी तरह दिया जाता है । भट्टोजि दीक्षित ने भी अपनी सिद्धान्तकौमुदी में उपर्युक्त सूत्र का अर्थ करते हुए यही कहा है- "दानस्य कर्मणा यम् अभिप्रति स सम्प्रदानसंज्ञः स्यात्" । सिद्धान्तकौमुदी की टीका तत्त्वबोधिनी में इस बात को और स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि 'सम्प्रदानम्' यह बहुत बड़ी संज्ञा केवल १. ह.-सम्प्रदीयते । २. तुलना करो-वैभूसा० पृ० २०६, वृत्तिकारस्तु सम्यक् प्रदीयते यस्मै तत् सम्प्रदानम् इत्यन्वर्थसंज्ञया
स्व-स्वत्व-निवृत्तिपर्यन्तम् अर्थ वर्णयन्तो रजकस्य वस्त्रम् इत्याहुः ।
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