Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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कारक-निरूपण इसलिये अपनायी गई है कि इसे अन्वर्थक (अर्थानुसारी) बताया जा सके । इसलिये 'कर्ता' जिस किसी भी क्रिया के 'कर्म' से क्रिया का सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है उन सब की 'सम्प्रदान' संज्ञा नहीं होती। इसी कारण 'अजां नयति ग्रामम्' (बकरी को गांव ले जाता है) यहां 'ग्राम' की अथवा 'हस्तं निदधाति वृक्ष' (पेड़ पर हाथ रखता है) इस प्रयोग में 'वृक्ष' की सम्प्रदान संज्ञा नहीं होती।
वृत्तिकारों की दृष्टि से 'दान' का जो अर्थ नागेश ने किया है वही तत्त्वबोधिनीकार ने भी किया है । द्र० --- "दानं च अपुनर्ग्रहणाय स्व-स्वत्व निवृत्तिपूर्वकं परस्वत्वोत्पादनम्" । इसीलिये 'रजकस्य वस्त्रं ददाति' जैसे प्रयोगों में 'रजक' की 'सम्प्रदान' संज्ञा नहीं होती क्योंकि वहां धोबी को कपड़े इसलिये दिये जाते हैं कि वह कपड़ों को धोकर पुन: लौटा दे। अतः ‘रजक' की 'सम्यक्प्रदानता' नहीं है। इस कारण 'दा' धातु का यहां, 'सिंहो माणवक:' के जैसे प्रयोगों के समान 'ददाति इव ददाति' इस रूप में, गौण प्रयोग हुआ है। उसका अर्थ है केवल कुछ समय के लिये वस्त्रों को धोबी को देना । द्र० - 'ददातिप्रयोगस्तूपमानात्' (महा० की उद्द्योत टीका १.४.३२) ।
परन्तु नागेश की दृष्टि में इन विद्वानों का, 'सम्प्रदान' संज्ञा की परिभाषा के विषय में, उपर्युक्त विचार उचित नहीं है । इस अनौचित्य के हेतु आगे की पंक्तियों में दिये जा रहे हैं।
[वृत्ति कारों के मत का अनौचित्य]
तन्न । “खण्डिकोपाध्यायः शिष्याय चपेटां ददाति" इति भाष्यविरोधात् । “कर्मणा यम् अभिप्रैति०" (पा० १.४.३२) इति सूत्र-व्याख्यावसरे भाष्यक ता अन्वर्थ-संज्ञाया अस्वीकाराच्च । अतएव-"तद् पाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु यत्" इति (दुर्गा-) सप्तशती-(५.१२६) श्लोकः सङ गच्छते । तस्माद् 'रजकाय वस्त्रं ददाति' इत्यादि भवत्येव । अत्र अाधीनीकरणे अर्थे ददातिः । 'चपेटां ददाति' इत्यत्र न्यसने अर्थे इति ।
वह (वृत्तिकारों का मत) ठीक नहीं है क्योंकि (उस मत का) 'खण्डिकोपाध्यायः शिष्याय चपेटां ददाति' (खण्डिकोपाध्याय विद्यार्थी को चाँटे मारता है) इस भाष्य (के प्रयोग) से विरोध है तथा "कर्मणा यम् अभिप्रेति स सम्प्रदानम्" इस सूत्र के व्याख्यान के समय भाष्यकार ने ('सम्प्रदान' को) अन्वर्थसंज्ञक नहीं माना है । इसलिये-- "तद् आचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्त करोतु यत्" १. तुलना करो--- महा० भा० १, पृ० १७८; खण्डिकोपाध्यायस् तस्मै चपेटां ददाति ।
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