Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा इत्यादि (प्रयोगों) में (नदी के) अवयवों का उपचय होना रूप 'वृद्धि क्रिया' से उत्पन्न होने वाले, तीर-प्राप्ति रूप, 'फल' के आश्रय 'तीर' में 'कर्म' संज्ञा की प्राप्ति होगी।
कर्मत्वं दावादाव अतिव्याप्ते:-यहां नैयायिकों ने पूर्वपक्ष के रूप में 'कर्म' कारक की तीन परिभाषायें प्रस्तुत की हैं। पहली है --- "करण-व्यापारवत्त्वं कर्मत्वम्" अर्थात् 'करण' कारक के व्यापार से युक्त होने वाला कारक 'कर्म' कारक है। 'करण-व्यापार' का अर्थ है--- 'करण से उत्पन्न होने वाला व्यापार'। इस परिभाषा को न्याय-सिद्धान्त-दीपिका में "करण-व्यापार-विषय-कारणत्वं कर्मत्वम्" (न्यायकोश में उद्धृत) इन शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। परन्तु इस परिभाषा को मानने से 'दात्रेण धान्यं लनाति' इत्यादि प्रयोगों में 'दात्र' की भी 'कर्म संज्ञा माननी होगी क्योंकि धान को काटने में हाथ 'करण' है तथा उस 'करण' अर्थात् हाथ के व्यापार से दात्र युक्त है। इस रूप में इस परिभाषा को मानने में अतिव्याप्ति दोष आता है जिसके निवारणार्थ दूसरी परिभाषा प्रस्तुत की गयी।
नापि क्रियाजन्य 'कर्तृ निष्ठत्वात्-दूसरी परिभाषा है - "क्रिया-जन्य-फलशालित्वं कर्मत्वम्", अर्थात् -- क्रिया से उत्पन्न फल से युक्त होने वाला कारक 'कर्म' है। परन्तु इस परिभाषा में भी अतिव्याप्ति दोष है । 'चैत्रः ग्रामं गच्छति' जैसे प्रयोगों में 'गमन' क्रिया से उत्पन्न होने वाले फल ('संयोग') से जिस प्रकार ग्राम युक्त होता है उसी प्रकार गाँव को जाने वाला चैत्र भी 'संयोग' रूप फल से युक्त होता ही है क्योंकि 'संयोग' अकेले गॉव का तो हो नहीं सकता, किसी दूसरी वस्तु या व्यक्ति के साथ ही गाँव का संयोग' संभव है। इसलिए परिभाषा के अनुसार चैत्र की भी 'कर्म' संज्ञा प्राप्त होगी और तब 'चैत्रः ग्रामं गच्छति' के समान 'चैत्रः चैत्रं गच्छति' जैसे प्रयोग भी होने लगेंगे।
नापि परसमवेत - कर्मत्वापत्तश्च-तीसरी परिभाषा है-“परसमवेत-कियाजन्य-फल-शालित्वं कर्मत्वम्' अर्थात् 'कर्म' से अन्य कारक में 'समवाय'-सम्बन्ध से रहने वाली क्रिया से उत्पन्न 'फल' से युक्त होने वाला कारक 'कर्म' है। इस परिभाषा से पूर्वोक्त 'चैत्रश्चैत्रं गच्छति' जैसे प्रयोगों का निराकरण हो जाएगा।
परन्तु इस परिभाषा में भी एक अन्य अतिव्याप्ति दोष है। 'प्रयागात् चैत्रः गच्छति' (प्रयाग से चैत्र जाता है) तथा 'वृक्षात् पत्रं पतति' (पेड़ से पत्ता गिरता है) जैसे 'गम्' तथा 'पत्' धातु के प्रयोगों में, जिस पूर्व स्थान से कर्ता पृथक् होता है उन, 'प्रयाग' तथा 'वृक्ष' जैसे शब्दों में भी 'कर्म' सज्ञा की प्राप्ति होगी, क्योंकि 'गमन' क्रिया या 'पतन' क्रिया 'कम' से भिन्न 'कारक' में 'समवाय' सम्बन्ध से रहती है तथा उनसे उत्पन्न 'फल' ('विभाग') से प्रयाग तथा वृक्ष युक्त रहते ही हैं । इसी प्रकार 'वृक्षं त्यजति वायसः' जैसे 'त्यज्' धातु के प्रयोगों में उत्तरदेश, अर्थात् वृक्ष को त्यागकर कौआ जहां जाता है उन, आकाश आदि की 'कर्म' संज्ञा प्राप्त होगी, क्योंकि 'परसमवेत' अर्थात् कौए आदि 'कर्म' कारक से भिन्न कारक में समवाय सम्बन्ध से रहने वाली, 'त्यजन' क्रिया से उत्पन्न 'संयोग' रूप फल का प्राश्रय आकाश अादि होते ही हैं। 'नदी वर्धते' जैसे प्रयोगों में भी, जिनमें अवयव अर्थात् लहर आदि, का बढ़नारूप क्रिया,
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