Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धांत-परम- लघु-मंजूषा
आश्रय नहीं हैं । इस 'अव्याप्ति' दोष के कारण इस लक्षण का भी खण्डन कर दिया गया । वैयाकरण- सिद्धान्त- लघु-मंजूषा में "नया रीत्या व्यापार-व्यधिकरण धात्वर्थ-फलाश्रयत्वं कर्मत्वम्' ( पृ० १३२५) इन शब्दों के द्वारा जिस बात का सङकेत दिया गया था उसे यहाँ सुस्पष्ट कर दिया गया है ।
[' वृक्षं त्यजति खगः ' प्रयोग के विषय में विचार ]
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ननु 'वृक्षं त्यजति खर्ग:' इत्यत्र 'वृक्षस्य', विभागरूपफलाश्रयत्वेन, ग्रपादानत्वम् ग्रस्तु इति चेत् ? न । अत्र हि 'विभाग : ' प्रकृत धात्वर्थः । यत्र च 'विभागः ' न प्रकृतधात्वर्थस् तद्विभागाश्रयस्यैव अपादानत्वम् । यथा 'वृक्षात् पतति' इत्यादौ । यत्र च प्रकृत धात्वर्थ: 'विभागः ' तत्र उभयप्राप्तौ " ग्रपादानम् उत्तराणि कारकाणि' बाधन्ते " इति भाष्य' - युक्तः कर्मत्वम् । ग्रनुक्तं कर्मणि पष्ठद्वितीये – 'भारतस्य श्रवणम्' 'भारतं श्रृणोति' इति
यथा ।
'वृक्षं त्यजति खग : ' ( पक्षी वृक्ष को छोड़ता है) इस (प्रयोग) में 'वृक्ष' के 'विभाग' रूप 'फल' का आश्रय होने के कारण, 'अपादान' संज्ञा हो यह कहा जाय तो वह उचित नहीं है क्योंकि यहां 'विभाग' उच्चरित धातु का अर्थ है । जो 'विभाग' उच्चरित धातु का अर्थ न हो उस 'विभाग' (रूप 'फल' ) के आश्रय की ही 'अपादान' संज्ञा होती है । जैसे - 'वृक्षात् पतति' (पेड़ से गिरता है) इत्यादि (प्रयोगों) में। जहां 'विभाग' उच्चरित धातु का अर्थ है वहाँ दोनों ('कर्म' तथा 'अपादान' कारकों) की प्राप्ति होने पर "अपादान' कारक को बाद में विहित कारक बाँध लेते हैं" इस भाष्य की युक्ति से 'कर्म' संज्ञा होती है। 'कर्म' के 'अनभिहित' रहने पर पष्ठी तथा द्वितीया' (दोनों विभक्तियां प्रयुक्त) होती हैं । जैसे- 'भारतस्य श्रवणम्' ( महाभारत का सुनना ) तथा 'भारतं श्रृणोति' ( महाभारत को सुनता है) ।
'विभाग का आश्रय अपादान कारक होता है केवल इतना ही 'अपादान' कारक की परिभाषा मान कर यहाँ यह प्रश्न किया गया है कि 'वृक्षं त्यजति खगः ' इस प्रयोग में वृक्ष की 'अपादान' संज्ञा होनी चाहिये । प्रश्न के उत्तर
१.
ह० तथा व'मि० में 'कारकाणि' अनुपलब्ध |
२. महा० १.४.१ तुलना करो - 'अपादानसंज्ञाम् उत्तराणि कारकाणि बाधन्ते ।
३.
ह० मैं 'भारतं शृणोति' अनुपलब्ध ।
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