Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
(आश्रय ) है धात्वर्थ रूप व्यक्ति । अतः 'धात्वर्थतावच्छेदक' का अभिप्राय है ' धात्वर्थ' । इसलिये इस परिभाषा का अभिप्राय यह है कि धात्वर्थरूप जो 'फल' उसका श्राश्रयभूत जो 'कारक' वह 'कर्म' है ।
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तादृशफलं 'संयोगः - ऊपर तीसरी परिभाषा में जो 'अतिव्याप्ति' दोष दिखाये गये हैं वे इस चौथी परिभाषा में नहीं उपस्थित होते, क्योंकि 'प्रयागात् चैत्रः गच्छति' तथा 'वृक्षात् पत्रं पतति' इत्यादि प्रयोगों में 'प्रयाग' तथा 'वृक्ष' प्रादि पूर्व स्थान एक ऐसे, 'विभाग 'रूप, 'फल' के श्राश्रय हैं जो 'गम्' तथा 'पत्' धातुओं का अर्थ नहीं है । 'वृक्षं त्यजति वायसः' इत्यादि प्रयोगों में जिस 'संयोग' रूप 'फल' का प्राश्रय उत्तर स्थान आकाश आदि हैं वह 'संयोग' त्यज्' धातु का अर्थ नहीं है । इसीलिये इस परिभाषा को स्पष्ट करते हुए धात्वर्थरूप 'फल' का निर्देश किया गया। वह धात्वर्थरूप 'फल' है ' गम्' धातु का 'संयोग', 'त्यज्' धातु का 'विभाग' तथा 'पत्' धातु का निम्न स्थान से 'संयोग' । इन 'फलों' की दृष्टि से ऊपर के 'अतिव्याप्ति' दोष का निराकरण हो जाता है ।
श्रधोदेश
" पतति इति : - - यहां यह प्रश्न हो सकता है कि 'पत्' धातु के प्रयोग में 'धात्वर्थ', अर्थात् 'संयोग' रूप 'फल', का श्राश्रय होने के कारण निम्न देश अर्थात् 'भूमि' आदि की 'कर्म' संज्ञा होनी चाहिये । तथा 'पर्ण वृक्षाद् भूमौ पतति' इस प्रयोग के स्थान पर ' पर वृक्षाद् भूमि पतति' यह प्रयोग होना चाहिये। इसका उत्तर यहां यह दिया गया कि 'पत्' धातु का 'धात्वर्थ' अर्थात् 'फल', केवल 'संयोग' न होकर, निम्नदेश से 'संयोग' है । इसलिये, 'कर्म' धात्वर्थ में ही सन्निविष्ट है । इस प्रकार, धात्वर्थ में ही सन्निविष्ट होने के कारण, पत्' धातु को यहां 'अकर्मक' मानना होगा । धात्वर्थ में ही 'कर्म' के अन्तर्भूत होने पर धातु को 'अकर्मक' मानने की व्यवस्था निम्न कारिका में मिलती है।
धातोर् अर्थान्तरे वृत्त ेर् धात्वर्थेनोपसङ्ग्रहात् । प्रसिद्ध ेर् प्रविवक्षातः कर्मणोsaमिका क्रिया ॥
( वाप० ३.७.८८ )
इस कारिका का 'धात्वर्थेनोपसङ्ग्रहात्' अंश प्रस्तुत प्रसङ्ग की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है । भाष्यकार पतंजलि ने भी इस व्यवस्था का सङ्केत निम्न शब्दों में किया है---" अभिहितं कर्म अन्तर्भूतं धात्वर्थः सम्पन्नः । न चेदानीम् अन्यत् कर्म अस्ति येन सकर्मकः स्यात् " ( महा० ३.१.८ )
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'संयोग' मात्र - फलपक्षे 'वृक्षाद् भूमि पतति' इति : - परन्तु एक दूसरा पक्ष ऐसा भी है जिस में 'पत्' धातु को 'अकर्मक' न मानकर 'सकर्मक' माना जाता है। इस पक्ष में पत्' का धात्वर्थ रूप 'फल' निम्न देश से 'संयोग' न होकर केवल 'संयोग' है । सम्भवतः इसी पक्ष को मानते हुए सूत्रकार पाणिनि ने “द्वितीयाश्रितातीतपतित आपन्नैः " ( पा० २.१.२४ ) सूत्र की रचना करके, द्वितीया विभक्त्यन्त 'भूमि' इत्यादि शब्दों के साथ, 'पत्' धातु से निष्पन्न 'पतित' शब्द के समास का विधान किया। इसका अभिप्राय यह है कि पाणिनि यह मानते हैं 'भूमि पतितः' इत्यादि प्रयोग साधु हैं । इस पक्ष की दृष्टि से 'पत्' धातु