Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा में 'नखों से धानों की भूसी को अलग न करे' इस 'लक्ष्य' अर्थ, अथवा, 'अर्थ जन्य' एक अन्य अर्थ, की कल्पना करनी पड़ती है। 'परिसंख्या' के वाक्य में भी 'परिगणित पांच से इतर पञ्चनख वाले जानवरों को नहीं खाना चाहिये' इस अन्य अर्थ की कल्पना करनी पड़ती है । इन तीनों दोषों का संकलन, 'परिसंख्या-विषयक, निम्न श्लोक में किया गया है:
श्रुतार्थस्य परित्यागाद् अश्रु तार्थ-प्रकल्पनात् । प्राप्त स्य बाधाद् इत्येवं परिसंख्या त्रिदूषणा ।
(अर्थसंग्रह ५३ में उद्धत)
परन्तु इन तीनों दोषों के होते हुए भी 'नियम' तथा 'परिसंख्या' की कल्पना को इसलिये स्वीकार किया गया कि यदि इन्हें न माना गया होता तो, दुसरे प्रमाणों या वाक्यों से अनिष्ट विधि के प्राप्त होने के कारण, 'परिसंख्या' तथा 'नियम' वाले अनेक वाक्य व्यर्थ हो जाते । इस कारण ब्राह्मण आदि ग्रन्थों के अनेक वाक्यों के निरर्थक हो जाने रूप महान् दोष के निवारण के लिये 'नियम' तथा 'परिसंख्या' की कल्पना की गयी-ऐसा मीमांसा के विशिष्ट प्राचार्यों का कहना है ।
__ पंच पंचनखा:.."व्याकरणे गृह्यते-मीमांसा के प्राचार्यों ने 'परिसंख्या' तथा 'नियम' इन दोनों नियामक विधियों का अलग अलग स्वरूप निर्धारित किया है तथा उनकी भिन्न भिन्न परिभाषायें दी हैं। 'विधि' की पाक्षिक प्राप्ति में जो विधान किया जाता है-वह नियम विधि' है। 'सामान्य' तथा 'विशेष' दोनों रूपों में 'बिधि' की प्राप्ति होने पर केवल विशेष में जो विधान किया जाता है वह 'परिसंख्या विधि' है। इस प्रकार परिसंख्या' में एक साथ दोनों 'विधियां' सम्भव है। जैसे-यहीं दोनों प्रकार के 'पांच नख वाले पांच प्राणियों के मांसों तथा उनसे इतर प्राणियों के मांसों का भक्षण सम्भव है । परन्तु 'नियमविधि' में दोनों विधियां एक साथ सम्भव नहीं है । जैसे---सम तथा विषम दोनों प्रकार के स्थलों में एक साथ यज्ञ सम्भव नहीं है।
पर इस भेद के होते हुए भी व्याकरण के विद्वानों ने 'नियम' तथा 'परिसंख्या' दोनों को, अन्य निवृतिरूप प्रयोजन की एकता के कारण, एक माना है, या 'नियम' में 'परिसंख्या' का भी समावेश मान लिया है । इसीलिये महाभाष्य के प्रथम प्राहि नक (पस्पशाहि नक पृ० ४०) में 'परिसंख्या के उदाहरणभूत वाक्य को प्रस्तुत करते हुए भी ‘परिसंख्या' का नाम न लेकर 'नियम' शब्द का ही प्रयोग किया गया है। द्र०-"भक्ष्य-नियमेन अभक्ष्य-प्रतिषेधो गम्यते। अभक्ष्य-प्रतिषेधेन वा भक्ष्य-नियमः"। नागेश भट्ट ने अपनी उद्द्योत टीका में इस प्रसङ्ग को निम्न शब्दों में स्पष्ट किया है"ननु अस्य परिसंख्यात्वात् कथं नियमत्वेन व्यवहार: ? अस्ति च नियमपरिसंख्ययोर् भेदः । पाक्षिकाप्राप्तांशपरिपूरणफलो नियमः, अन्यनिवृत्तिफला च परिसङख्या, इति चेन्न । नियमेऽप्यप्राप्तांशपरिपूरणरूप-फल-बोधन-द्वारा अर्थादन्य-निवत्तेः सत्त्वेन अभेदम् प्राश्रित्योक्त:" (महा०, उद्द्योत टीका, भा० १, पृ० ४०)।
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