Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूशा तथा 'नील' उसका विशेषण है। इसी प्रकार 'घट पदार्थ' में विद्यमान 'नील'पदार्थविषयक 'याकांक्षा' के कारण उपस्थित होने वाला 'नील' विशेष्य है तथा 'घट' उसका विशेषण । दोनों दोनों के विशेषण हैं तथा दोनों दोनों के विशेष्य भी हैं। इस तरह दोनों में विशेषणता की 'याकांक्षा' बनी होने पर भी दोनों में केवल एक को, उस पदार्थ के ज्ञात होने के कारण, विशेषण मान लिया जाता है तथा दसरे अज्ञात पदार्थ को विशेष्य माना जाता है ।
अन्यथा हरिपदार्थयो...."अन्वयापत्ते :-- यदि इस नियम को कि “एक पद से उत्पन्न अर्थज्ञान में दूसरे पद से उपस्थित होने वाला अर्थ हेतु होता है" न माना जाय तो 'हरि' शब्द के दो अर्थों - घोड़ा तथा इन्द्र-में भी परस्पर अन्वय मानना होगा। इसी तरह 'दण्डेन' इस प्रयोग में तृतीया विभक्ति के दो अर्थों - 'करणत्व' तथा 'एकत्व' - में भी परस्पर अन्वय स्वीकार करना होगा।
मैवम् - मिथोऽन्वयः-परन्तु नैयायिक इस पूर्वपक्ष का उत्तर यह देता है कि इस नियम को तो मानना ही चाहिये । परन्तु केवल कुछ स्थलों या प्रयोगों को, जहाँ व्यर्थक शब्दों के अपने ही दो अर्थों का परस्पर अन्वय अभीष्ट है, इस नियम का अपवाद मान लेना चाहिये । दूसरे शब्दों में, उक्त नियम को 'तत्तत्पदान्यत्व' इस विशेषण द्वारा कुछ संकुचित कर देना चाहिये, अर्थात् 'लकार' अथवा 'एव' आदि, जिन पदों में एक ही पद के दोनों अर्थो में अन्वय अभीष्ट है, से अतिरिक्त पदों में यह नियम उपस्थित होगा। इसलिये अपवाद के रूप में 'लट्' के दो अर्थों-'कृति' तथा 'वर्तमानता'---में परस्पर अन्वय हो जायगा।
['घिटो नश्यति' इत्यादि वाक्यों में 'लट्' के अर्थ के विषय में विचार]
'घटो नश्यति' इत्यादौ वर्तमानोत्पत्तिकत्वं प्रतियोगित्वं च लडर्थः । श्राद्य नाशे प्रकारः, द्वितीयं घटे प्रकारः । 'वर्तमानोत्पत्तिकनाशप्रतियोगी घट:' इति बोधस्य अनुभविकत्वात् । अत्र च वृत्तिद्वयस्य युगपद् बोधकत्वं सर्वै रेषितव्यम् । तादृशोत्पत्तिकत्व प्रतियोगित्वयोरर्थयोः युगपदेव बोधात् । न च तादृशोत्पत्तिकत्वम् एव अर्थोऽस्तु । धात्वर्थस्य नाशस्य घटे प्रातिपादिकार्थे साक्षाद् अन्वयासम्भवात् । न च प्रतियोगित्वमेव अर्थोऽस्तु इति वाच्यम्, चिरनष्टेऽपि 'नश्यतीति' प्रसङ गात् ।
एतेनात्र वर्तमानत्वम् एवार्थो नोत्पत्तिरित्यपास्तम् । १. ह.- उत्पत्ति
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