Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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कारक-निरूपण
३१७ के निवारण के लिये (यहाँ लक्षण में) 'धातुवाच्य पद रखा गया। “तिङ्समानाधिकरणे प्रथमा” (क्रिया-पद के अधिकरण से अभिन्न अधिकरण वाले शब्द में प्रथमा विभक्ति होती है) अथवा "अभिहिते प्रथमा" (कथित कारक में 'प्रथमा' विभक्ति होती है) इन दो वार्तिकों के आधार पर क्रिया द्वारा किसी भी 'कारक' के कथित होने पर उस कारक में 'प्रथमा' विभक्ति ही होती है।
यहाँ 'कर्ता' की परिभाषा यह दी गयी कि प्रस्तुत धातु का अर्थ जो 'व्यापार' (क्रिया) उस का प्राश्रय 'कर्ता' है'। भर्तृहरि के नाम से जो कारिकांश इस प्रसंग में उद्धत किया गया उसका भी प्राशय यही है ।
पतंजलि ने "कारके" (पा० १.४.२३) सूत्र के भाष्य में, पाणिनि के "स्वतंत्रः कर्ता" (पा० १.४.५४) सूत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए, कहा है कि पतीली में होने वाला 'व्यापार' यदि प्रकृत (प्रस्तुत) 'पच्' धातु से विवक्षित हो तो पतीली स्वतंत्र होती है, अर्थात् उसकी 'कर्तृ' संज्ञा होती है। परन्तु यदि प्रस्तुत 'पच्' धातु से देवदत्त आदि (पकाने वाले) का 'व्यापार' विवक्षित हो तो 'स्थाली' (पतीली) परतंत्र हो जाती है, अर्थात् पतीली 'अधिकरण' बनती है तथा देवदत्त आदि 'कर्ता' बनते हैं- "एवं तर्हि स्थालीस्थे यत्ने कथ्यमाने स्थाली स्वतंत्रा कर्तृस्थे यत्ने कथ्यमाने परतंत्रा" (महा० १.४.२३)।
___ पतंजलि की उपर्युक्त व्याख्या का अनुसरण करते हुए कौण्डभट्ट ने कर्तृत्व की परिभाषा की है- "स्वातंत्र्यं च धात्वर्थव्यापाराश्रयत्वम्", अर्थात् प्रयुक्त धातु के अर्थरूप व्यापार का आश्रय बनना स्वातंत्र्य (कर्तृत्व) है तथा यह कहा कि जिस भी 'कारक' के 'व्यापार' को प्रस्तुत धातु कहता है वह 'कारक' कर्ता बन जाया करता है। इसलिये 'स्थाली पचति', 'अग्नि: पचति', 'एधांसि पचन्ति', 'तण्डुलः पच्यते स्वयमेव' इत्यादि प्रयोग सुसंगत हो पाते हैं (द्र०-वैभूसा० पृ० १८३-१८४) ।
अन्य कारक-निष्ठो व्पापारस्तु न 'प्रकृतधातुवाच्यः-ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि केवल कर्ता के व्यापार को ही प्रयुक्त धातु कहा करता है। 'कर्म' आदि अन्य' 'कारकों' में होने वाले 'व्यापार' को प्रस्तुत धातु नहीं कहता, अन्य कारकों' का व्यापार प्रस्तुत धातु का वाच्यार्थ नहीं बनता। जैसे --- 'देवदत्तः काष्ठः स्थाल्यां तण्डुलं पचति' (देवदत्त लड़कियों से पतीली में चावल पकाता है) जैसे प्रयोगों में प्रयुक्त 'पच्' धातु केवल देवदत्त के ही यत्नरूप 'व्यापार' को कहता है। वह न तो काष्ठों (करण) के जलने आदि 'व्यापार' को कहता है और न पतीली (अधिकरण) के द्वारा किये जाने वाले, चावल आदि के, धारणा रूप 'व्यापार' को और न ही चावलों ('कर्म') में होने वाले पकने आदि 'व्यापार' को कहता है। यदि कोई वक्ता अपनी विवक्षा के अनुसार प्रस्तुत धातु से 'कर्म' आदि ('कर्ता' से अतिरिक्त) 'कारकों' के 'व्यापारों' को कहना चाहे तो उस स्थिति में वह 'कारक', अपनी उन-उन 'कर्मता' आदि को छोड़कर, 'कर्ता' बन जायगा । जैसा कि ऊपर के 'स्थाली पचति', 'अग्निः पचति', इत्यादि उदाहरणों से स्पष्ट है।
इस रूप में प्रस्तुत धातु के द्वारा कथित होने पर, उस उस 'कारक' की 'कर्तृ' संज्ञा
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