Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
['कर्ता' को एक अन्य परिभाषा का खण्डन]
यत्तु 'कारकान्त राप्रयोज्यत्वे सति कारक-चक्रप्रयोजकत्वं कर्तृत्वम्' इति तन्न । 'स्थाली पचति' 'असिश्छिनत्ति' इत्यादौ स्थाल्यादेः कारकचक्रायोजकत्वात् कारकान्तर
प्रयोज्यत्वाच्च तत्त्वं न स्याद् इत्यलम् । जो "कारकान्तर से प्रेरित न होकर (कर्ता से भिन्न) 'कारक'-समूह का प्रेरक होना 'कत ता' है" यह परिभाषा है वह ठीक नहीं है क्योंकि 'स्थाली पचति' (पतीली पकाती है।, 'असिः छिनत्ति' (तलवार काटती है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'स्थाली' आदि (शब्दों) की, 'कारक'-समूह के प्रयोजक न होने तथा अन्य कारक' (चैत्र आदि से) प्रयोज्य होने के कारण, 'कतता' नहीं हो सकेगी।
'कर्तृत्व' की मीमांसक सम्मत परिभाषा है "कारकान्तराप्रयोज्यत्वे सति कारक चक्रप्रयोजकत्वम्" (द्र०-वैभूसा०, शांकरी टीका, पृ० १८६) । इसका अभिप्राय यह है कि जो किसी दूसरे 'कारक' से प्रेरित न हो तथा स्वयं सभी 'कारकों' का प्रेरक हो वह 'कर्ता' है। "कारके" (पा. १.४.२३) सूत्र के भाष्य में पतंजलि ने कहा है "कथं पुनर्ज्ञायते कर्ता प्रधानम् इति ? यत् सर्वेषु साधनेषु सन्निहितेषु कर्ता प्रवर्तयिता भवति", अर्थात सभी कारकों में 'कर्ता' प्रधान होता है यह कैसे जाना जाय ? इस का उत्तर यह है कि अन्य सभी कारकों' के विद्यमान होने पर कार्य तब तक नहीं होता जब तक 'कर्ता' उन 'कारकों' को कार्य करने के लिये प्रेरित नहीं करता । इसलिये 'कर्ता' प्रधान होता है। सम्भवतः ऐसे कथनों के आधार पर ही 'कर्ता' की उपर्युक्त परिभाषा मीमांसकों ने प्रस्तुत की।
नागेश ने इस परिभाषा के खण्डन में यह कहा कि 'स्थाली पचति' इत्यादि प्रयोगों में 'कर्ता' स्थाली इत्यादि में न तो अन्य कारकों' को प्रेरित करने की शक्ति है और न ही यही बात है कि वे 'कर्ता' से प्रेरित नहीं होते, अर्थात् एक तरफ तो वे अन्य कारकों' को प्रेरित नहीं कर पाते दूसरे वे 'कर्ता' देवदत्त आदि से प्रेरित होते हैं क्योंकि वे सर्वथा अचेतन हैं । अत: अव्याप्ति दोष के कारण यह परिभाषा मान्य नहीं है । कौण्डभट्ट ने भी इसी युक्ति के साथ इस परिभाषा का खण्डन किया है । द्र०-"कारकचकप्रयोक्तृत्वं .. 'दण्ड: करोति' इत्यत्र अव्याप्तम्" (वभूसा० पृ० १८६), अर्थात् 'कारक-समूह का प्रेरककर्ता है' यह परिभाषा 'दण्डः करोति' इस प्रयोग में 'दण्ड:' की कर्तृता को उत्पन्न नहीं कर पाती।
परन्तु नागेशभटट तथा कौण्डभटट का यह खण्डन उचित नहीं है क्योंकि 'स्थाली पचति' या 'दण्ड: करोति' इत्यादि प्रयोगों में 'स्थालों आदि अचेतन पदार्थों में चेतनता १. तुलना करो- भूसा० (पृ० १८६); "कारकचक्रप्रयोक्त त्व' कारकत्वम् .. 'दण्ड: करोति' इत्यत्रा
व्याप्तम्"। २. ह. में 'तत्त्व न स्यात्' यह अंश नहीं है।
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