Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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कारक-निरूपण
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का आरोप करके ही उन में 'कर्तत्व की विवक्षा को गयी। इस प्रकार जब आरोपित चेतनता वहां है तो 'स्थाली' या 'दण्ड' इत्यादि स्वत: अन्य 'कारकों के प्रेरक तथा कर्त्ता से अप्रेर्य हो जायेंगे। इसलिए महाभाष्यकार ने 'कारके' सूत्र के भाष्य में (१.४.२३ पृ० ३५२) ही यह भी माना हैं कि 'स्थाली' में होने वाले यत्नों को जब 'पच्' धातु से कहा जाता है तब स्थाली स्वतंत्र होती है, अर्थात् स्थाली को स्वतंत्र अथवा कर्ता के रूप में प्रकट करने की वक्ता की विवक्षा होती है। जब 'पच्' धातु के द्वारा देवदत्त के यत्न को कहा जाता है तब स्थाली को परतंत्र अथवा 'अधिकरण' के रूप में प्रकट करने की वक्ता की विवक्षा होती है। द्र०"स्थालीस्थे यत्ने (पचिना) कथ्यमाने स्थाली स्वतंत्रा कर्तस्थे यत्ने कथ्यमाने परतंत्रा" । अचेतन पदार्थों में 'कर्तृत्व' का आरोप प्रायः होता है। इसीलिये तो 'भिक्षा वासयति' इत्यादि प्रयोग सुसंगत हो पाते हैं। वस्तुतः वक्ता अपनी विवक्षा के अनुसार जिस किसी भी कारक' को स्वतंत्र अथवा परतंत्र बना सकता है । द्र० - "सर्वमैव स्वातंत्र्यं पारतंत्र्यं च विवक्षितम्" (महा० १.४.२३ ५० ३५०)। इसीलिये 'स्थाली पचति', 'दण्ड: करोति' जैसे प्रयोग अथवा कर्मकर्ता के प्रयोग सम्भव हो सके । अतः 'कर्ता' की उपर्युक्त परिभाषा को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता।
['कर्म' कारक को परिभाषा के विषय में विचार
कर्मत्वं च 'प्रकृत-धात्वर्थ-प्रधानीभूत-व्यापार-प्रयोज्यप्रकृत-धात्वर्थ-फलाश्रयत्वेन उद्देश्यत्वम्' । इदमेव कमलक्षणे 'ईप्सिततमत्वम्' । 'गां पयो दोग्धि' इत्यादौ पयोवृत्तिर् यो विभागस् तदनुकूलो व्यापारो गोवृत्तिः । तदनुकूलश्च गोपवत्तिः । अत्र पयसः कर्मत्व-सिद्धये 'प्रयोज्यत्व'-निवेशः । 'जन्यत्व'-निवेशे' तन्न स्यात् । 'प्रयागात् काशीं गच्छति' इत्यत्र प्रयागस्य कर्मत्व-वारणाय 'प्रकृतधात्वर्थ फल' इति । नहि विभागः प्रकृत-धात्वर्थः । किन्तु नान्तरीयकतया गमने उत्पद्यते। प्रयागस्य फलता
वच्छेदक-सम्बन्धेन फलाश्रयत्वेन अनुद्देश्यत्वाच्च । 'कर्मता' (की परिभाषा) है-"प्रस्तुत धातु के अर्थों में-प्रधानोभूत 'व्यापार' से (सीधे अथवा परम्परया) उत्पाद्य, प्रस्तुत धातु के (गौण) अर्थ,- 'फल'- के आश्रय के रूप में उद्देश्य बनाना"। 'कर्म' के लक्षण (“कर्तु र ईप्सिततमं कर्म" सूत्र) में 'ईप्सिततमता' का भी यही अभिप्राय है। 'गां पयो दोग्धि' (गाय का दूध दुहता है) इत्यादि (प्रयोगों) में दूध में होने वाला जो विभाग उसके १. ह.-कर्मण: । २. ह.-निवेशे तु । ३. ह० तथा व मि.-"फलतावच्छेदक सम्बन्धेन" अंश अनुपलब्ध है।
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