Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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लकारार्थ-निर्णय
३०७
'नाम्-विभक्तियों का अन्वय में प्रयोग किया जाय । क्योंकि एक परिभाषा है कि "नामार्थ-धात्वर्थयोर् भेद-सम्बन्धेन न साक्षाद् अन्वयः"। इस प्रकार की एक अन्य परिभाषा' की चर्चा ऊपर की जा चुकी है (द्र० -पृ० १६६, १८७-६८)। यदि 'षष्ठी'
आदि विभक्तियों का प्रयोग नहीं किया गया तो भेद-सम्बन्ध से अन्वय न होकर अभेदसम्बन्ध से ही अन्वय होगा। यहां षष्ठी जैसी कोई विभक्ति प्रयुक्त नहीं है, इसलिये 'स्वर्गाभिलाषी का याग' इस रूप में अन्वय नहीं किया जा सकता। अपितु अभेद सम्बन्ध से 'यागानुकुल प्रयत्न वाला स्वर्गाभिलाषी' इसी रूप में अन्वय किया जायगा ।
['ब्राह्मणो न हन्तव्यः,' इस प्रयोग के अर्थ के विषय में, 'लिङ्' के अर्थ की दृष्टि से, विचार]
'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इत्यादौ नञः कृतिसाध्यत्व-इष्टसाधनत्व-निषेधे स्वारस्याभावात् तेन बलवद् अनिष्टाननुबन्धित्व-निषेधाद् 'ब्राह्मणवधो बलवद्-अनिष्ट-जनक:' इत्यर्थः पर्यवस्यति । एतेन समुदिते लिङ्-शक्तिकल्पनम्
अपास्तम् । 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' (ब्राह्मण को नहीं मारना चाहिये) इत्यादि (प्रयोगों) में कृतिसाध्यता तथा इष्टसाधनता के निषेध में 'न' की सङ्गति न लगने के कारण उस ('नञ्') के द्वारा प्रबल दुःख की अनुत्पादकता का (ही) निषेध किये जाने से 'ब्राह्मण का वध प्रबल अनिष्ट का जनक है' यह अर्थ अन्ततः ज्ञात होता है। इस (केवल 'बलवद्-अनिष्ट-अनन बन्धिता' के निषेध में ही स्वारस्य होने के) कारण '(कृतिसाध्य', 'इष्टसाधन' तथा 'बलवद्-अनिष्ट-अननुबन्धी' इन तीनों अर्थों के) समुदाय में 'लिङ्की (एक) 'शक्ति' की कल्पना खण्डित हो गयी।
____ 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' जैसे प्रयोगों में 'न' के अर्थ 'अभाव' में 'लिङ्' के अर्थों में से केवल 'बलवद्-अनिष्ट-अननुबन्धिता' का हा अन्वय होता है। क्योंकि 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इस वाक्य का यही अभिप्राय है कि ब्राह्मण को मारने से महान् पाप उत्पन्न होता है, अर्थात् ब्राह्मण-वध प्रबल अनिष्ट का अनुत्पादक नहीं है अपितु उत्पादक है । 'लिङ' के अन्य दो अर्थों-'कृति-साध्यता' तथा 'इष्ट-साधनता' में 'अभाव' का अन्वय नहीं हो सकता क्योंकि ब्राह्मण-वध 'कृति-साध्य' भी है तथा कभी 'इष्ट-साधन' भी हो सकता है। इस तरह यहाँ 'लिङ्' के केवल एक अर्थ के ही निषेध होने के कारण यह स्पष्ट हो गया कि 'लिङ्' के तीनों अर्थ भिन्न-भिन्न हैं । अतः यह कहना कि 'लिङ्' के उपर्युक्त तीनों अर्थों के समुदाय या समन्वय की दृष्टि से 'लिङ्' में एक ही वाचकता 'शक्ति' है, खण्डित हो जाता है। तीनों अर्थों की दृष्टि से 'लिङ् लकार की तीन वाचकता 'शक्ति' की कल्पना ही उचित है ।
यहाँ 'लिङ् लकार के अर्थ-विचार के प्रसंग में 'तव्यत्' प्रत्ययान्त् 'हन्तव्यः' शब्द वाले वाक्य को, सम्भवतः 'लिङ् लकार के प्रयोग 'ब्राह्मणं न हन्यात्' के अर्थ से अभिन्न १. निस०, काप्रशु०-लिङः ।
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