Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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लकारार्थ-निर्णय
३१३
लाघवेन स्थानिनां वाचकत्वात् सङ्ख्यापि लकारार्थः ।
इति लकारार्थ-निर्णयः 'एधांश्चेद् अलप्स्यत् प्रोदनम् अपक्ष्यत्' (यदि ईंधन मिले होते तो चावल पका होता) इत्यादि (प्रयोगों) में "ईंधन है 'कर्म' जिसमें ऐसा, भूतकालिक रूप से 'तर्क' का विषय, जो लाभ (ईंधन का भूतकाल में मिलना) उसके अनुकूल यत्न वाला" तथा "मोदन (भात) है 'कर्म' जिसमें ऐसा भूतकालिक रूप से 'तर्क' का विषय जो पाक (चावलों का भूत काल में पकना) उसके अनुकूल कृति वाला" इस प्रकार का बोध होता है।
भविष्यत् कालीन क्रिया की ('तकरूप) प्रसिद्धि (अनिष्पत्ति) को प्रकट करने के लिये भी 'लुङ' (लकार) का प्रयोग होता है। क्योंकि 'यदि सुवृष्टिर् अभविष्यत् तदा सुभिक्षम् अभविष्यत्' (यदि वर्षा अच्छी होगी तो फसल अच्छी होगी) इस प्रकार के प्रयोग देखे जाते हैं। ('लुङ' लकार की) भूतकालिकता तथा भविष्यत्कालिकता के ज्ञान का निश्चय तात्पर्य (वक्ता के अभिप्राय) के आधार पर होगा।
'यदि स्यात्' इत्यादि (प्रयोगों) में 'लिङ' (लकार) का भी आपादना' ('तर्क'रूप) अर्थ वाच्य है। क्योंकि 'यदि निर्वाह्नः स्यात् तहि निर्धमः स्यात्' (यदि आग नहीं होगी तो धूवाँ भी नहीं होगा) इत्यादि (प्रयोगों) में उसी (क्रिया की अपादना-रूप प्रसिद्धि) का ज्ञान होता है ।
लाघव के कारण 'स्थानी' (लकारों) को ही अर्थ का वाचक माना जाता है, इसलिये संख्या भी लकारों का ही वाच्य अर्थ है ।
भविष्यति क्रियातिपदनेऽपि लड-जिस प्रकार भूतकाल में क्रिया की प्रसिद्धि होने पर 'लुङ्' लकार का प्रयोग होता है, उसी प्रकार भविष्यत् काल में क्रिया की प्रसिद्धि का निश्चय होने पर भी 'लुङ' लकार का प्रयोग होता है। इसीलिये इन दोनों कालों की दृष्टि से 'लङ्' के प्रयोग को साधु माना जाता है तथा पाणिनि ने भविष्यत् काल के प्रयोगों की दृष्टि से “लिङ्-निमित्ते लङ क्रियातिपत्तो' (पा० ३.३.१३६) तथा भूतकाल के प्रयोगों की दृष्टि से "भूते च” (पा० ३.३.१४०) इन दो सूत्रों की रचना की।
_ 'लुङ् लकार के प्रयोगों से कब क्रिया की भूतकालीन असिद्धि का पता लगेगा और कब क्रिया की भविष्यत्कालीन प्रसिद्धि का पता लगेगा इस बात का निर्णय वक्ता के तात्पर्य के अनुसार ही किया जायगा।
_ 'यदि स्यात्' इत्यादौ०-जिस प्रकार 'लङ् लकार के प्रयोगों से क्रिया की अतिपत्ति (असिद्धि) का ज्ञान होता है, उसी प्रकार 'यदि स्यात्' जैसे 'लिङ' लकार के प्रयोगों से भी उस प्रसिद्धि का ज्ञान होता है। पाणिनि ने "हेतुहेतुमतोलिङ" (पा० ३.३.१५६) इस सूत्र तथा 'लुङ' लकार के विधायक सूत्र “लिङ्-निमित्ते लुङ्
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