Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण - सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
वाच्यम् । 'सुप्तोऽहं किल विललाप,' 'मत्तोऽहं किलविचचार' इत्यादौ चित्तविक्षेपादिना पारोक्ष्यम्' उपपाद्य तत्र सूत्र सार्थक्यसम्भवात् । तत्र च परोक्षत्वेन पारोक्ष्यसादृश्ये तात्पर्यम् । ‘चक्रळे सुबन्धुः' इति तु न लिट्प्रयोगोऽपितु तिङन्तप्रतिरूपको निपातः ।
'लिट् (लकार) का तो 'भूत' काल के समान 'परोक्षता' भी अर्थ है क्योंकि 'अहं चकार' इत्यादि (जैसे ) प्रयोग नहीं देखे जाते । “लुत्तमो वा" इस (सूत्र) के ज्ञापक से वहाँ ('लिट् लकार की क्रियायों में) 'उत्तम पुरुष' का प्रयोग होगा यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'सुप्तोऽहं किल विललाप' ( कहते हैं सोये हुए मैंने विलाप किया), 'मत्तोऽहं किल विचार' ( कहते हैं मत्त होकर मैंने भ्रमण किया) इत्यादि प्रयोगों में चित्त की व्याकुलता आदि के आधार पर परोक्षता' का उपपादन करने से ( "लुत्तमो वा " ) सूत्र की सार्थकता सम्भव है और वहाँ ( "परोक्षे लिट् ” पा० ३.२.११५ इस सूत्र में ) 'परोक्षता' का तात्पर्य है- 'परोक्षता के सदृश' | 'चक्रे सुबन्धः' (सुबन्धु ने रची) यह ('चक्रे' प्रयोग) लिट् लकार का प्रयोग नहीं है है ' तिङन्त' सदृश 'निपात' ।
'लिट् लकार का अर्थ केवल 'भूत' काल न होकर परोक्षत्व - विशिष्ट भूतकाल है । परोक्ष का अर्थ है वक्ता की ज्ञानेन्द्रियों से परे होना । पाणिनि ने "परोक्षे लिट् " ( पा० ३.२.११५) सूत्र द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि 'लिट् लकार का प्रयोग केवल 'भूत' काल के लिये नहीं होता अपितु परोक्षत्व - विशिष्ट 'भूत' काल के लिये होता है ।
'लिट् लकार के 'परोक्षत्व - विशिष्ट भूतकाल' अर्थ की पुष्टि करते हुए, हेतु के रूप में, यहाँ यह कहा गया कि यदि 'लिट् लकार का अर्थ केवल 'भूत' काल ही होता तो ' अहं चकार' जैसे प्रयोग भी होने चाहिये । परन्तु ऐसे प्रयोग नहीं देखे जाते इससे यह स्पष्ट है कि 'लिट् लकार का अर्थ 'परोक्षत्व विशिष्ट भूतकाल' ही है। वस्तुतः वक्ता स्वयं किसी ऐसे कार्य को नहीं कर सकता जो उससे 'परोक्ष' हो । इसलिये 'ग्रहं चकार' (मैंने अपने से परोक्ष कार्य को किया) जैसे प्रयोग नहीं देखे जाते ।
यहाँ एक प्रश्न यह है कि यदि 'लट् लकार की क्रियायों के साथ 'उत्तम पुरुष' का प्रयोग नहीं हो सकता तो पाणिनि का " लुत्तमो वा " सूत्र व्यर्थ हो जायगा क्योंकि इस सूत्र का अर्थ ही हैं- "उत्तमपुरुष से युक्त जो 'गल' वह विकल्प से 'रिगत' होता है" । 'रिणत्' होने का परिणाम यह होगा कि 'प्रङ्ग' के उपधाभूत प्रकार को विकल्प से वृद्धि होगी ( द्र० - " अत उपधायाः ", पा० ७.२.११६) । जैसे -'कृ' धातु के 'ग्रहं चकार' तथा 'अहं चकर' दोनों तरह के प्रयोग होते हैं । " परस्मैपदानां गलतुस् ०" ( पा० ३.४.८२) सूत्र से विहित यह, 'उत्तमपुरुष' में होने वाला, 'गल्' 'लिट्' लकार में ही होता है क्योंकि उस सूत्र में ऊपर से 'लिट्' पद की अनुवृत्ति ग्रा रही है । इसलिये
१.
ह०- पराश्रम् |
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