Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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लकारार्थ-निर्णय
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अतः यहां केवल प्रेरणा से काम नहीं चलता । जब तक यह पता नहीं लगता कि 'यजन' से स्वर्गरूप अभीष्ट की प्राप्ति या सिद्धि होगी, अथवा याग स्वर्गरूप अभीष्ट का साधन है, तब तक कोई भी यजन क्रिया में प्रवृत्त नहीं होगा। अतः, केवल 'प्रवर्तना'-ज्ञान से कार्य में प्रवृत्ति की सिद्धि न होने के कारण, 'इष्ट-साधनता-ज्ञान' को ही प्रवृत्ति का कारण मानना चाहिये। क्योंकि वही एक मात्र प्रवत्ति का हेतु है। 'इष्ट-साधनता-ज्ञान' के हो जाने पर कहीं-कहीं बिना 'प्रवर्तना' या प्रेरणा के भी हम व्यक्ति को उन उन कार्यों में प्रवृत्त हुग्रा पाते है तथा कहीं 'इष्टसाधनता-ज्ञान' के साथ साथ थोड़ी बहुत प्रेरणा की अावश्यकता भी पड़ती है पर वह प्रेरणा बहुत कुछ 'इष्ट-साधनता-ज्ञान' को ही दृढ़ या पुष्ट करने के लिये होती है।
यह पूछा जा सकता है कि यदि 'इष्ट-साधनता-ज्ञान' ही प्रवृत्ति का हेतु है तो सद्यः उत्पन्न नवजात शिशु स्तनपान कार्य में अथवा अबोध पशु पक्षी भिन्न भिन्न कार्यों में क्यों प्रवृत्त होते हैं-इन सबको तो 'इष्टसाधनता' का ज्ञान होता ही नहीं । इसका उत्तर नयायिक यह देते हैं कि इन सब में भी 'इष्टसाधनताज्ञान' का सक्षम संस्कार तो रहता ही है इसलिये उसे प्रवृत्ति का कारण मानने में कोई कठिनाई नहीं है ।
[प्राचार्य प्रभाकर के अनुयायी मीमांसक-विद्वानों के अनुसार 'विधि' शब्द का अर्थ
'कार्य विधिः' इति प्राभाकराः। 'स्वर्गकामो यजेत' इत्यादौ 'स्वर्गका मनियोज्यकं यागविषयक कार्यम्' इति प्राथमिको बोधः । 'सनियोज्यकं यागविषयकं स्थायिस्वर्गसाधनं कार्यम' इति द्वितीयः । ‘स्वर्ग-काम-नियोज्यको यागः स्वर्गकाम-कार्यः' इति ततीयः । 'स्वर्गकामो यागकर्ता' इति चतुर्थः । 'अहं स्वर्गकामोऽतो यागो मत्कृतिसाध्यः' इति पञ्चमः ।
'विधि' (का अर्थ) है 'कार्य' (एक विशेष प्रकार का 'अपूर्व' या 'पुण्य') -यह (ग्राचार्य) प्रभाकर के अनुयायी मानते हैं। 'स्वर्गकामो यजेत' (स्वर्गाभिलाषी यजन करे) इत्यादि (वाक्यों) में "स्वर्गाभिलाषी है 'नियोज्य' (इष्टसाधनता-ज्ञान से उत्पन्न कर्त्तव्य-बुद्धि वाला) जिसमें तथा याग है विषय जिसमें ऐसा 'कार्य' (अदृष्ट अपूर्व)" यह पहला ज्ञान होता है। "नियोज्य (व्यक्ति) के साथ रहने वाला यागविषयक 'कार्य' (अपूर्व) स्थायी तथा स्वर्ग का साधन है" यह दूसरा ज्ञान होता है। "स्वर्गाभिलाषी है 'नियोज्य' (इष्टसाधनताज्ञान से उत्पन्न कर्त्तव्य-बुद्धि वाला) जिसमें ऐसा याग (उस) स्वर्गेच्छुक व्यक्ति के द्वारा किया जाना चाहिये"-यह तीसरा ज्ञान होता है। "स्वर्गा१. ह०-कार्य । २. ह० में यह पूरा पद अनुपलब्ध है।
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