Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
प्रकार के ज्ञान से युक्त व्यक्ति ही 'नियोज्य' शब्द का अभिप्राय है। यह 'नियोज्यता' धर्म उस कार्य के करने वाले व्यक्ति में रहता है, जब तक यह 'नियोज्यता' अथवा कर्तव्य भावना नहीं उत्पन्न होती तब तक उस व्यक्ति में उस कार्य को करने की योग्यता नहीं पा सकती। इस लिये यह 'नियोज्यता' उस व्यक्ति की कार्य कर सकने की योग्यता का बोध उसी प्रकार कराती है जिस प्रकार 'घड़े से जल लाओ' इस वाक्य में 'छिद्र-रहितता' जल ला पाने की घट सम्बन्धी योग्यता का बोध कराती है। जब तक घड़ा छिद्र-रहित नहीं होगा तब तक उससे जल नहीं लाया जा सकता - जल लाने की योग्यता घड़े में नहीं होगी। इसी प्रकार जब तक व्यक्ति में 'नियोज्यता' नहीं पाती तब वह व्यक्ति उस क्रिया को करने की योग्यता से युक्त नहीं माना जा सकता। इस प्रकार 'इष्टसाधनताज्ञान' से उत्पन्न होने वाली कर्तव्य-बुद्धि ही सभी कार्यों में प्रवत्ति का हेतु है।
[पाँचों प्रकार के अर्थों का उपपादन]
न च या गे स्वर्ग-साधनत्व-ज्ञानं विनेदशं नियोज्यत्वं भातुम् अर्हति । न वा यागे स्वर्गसाधनत्वं प्रथममेव शक्यं ज्ञातुम् । तद्धि साक्षात् परम्परया वा । नाद्यः । आशूविनाशिनो यागस्य कालान्तर-'भावि-स्वर्गरूप-फले साक्षाद् अहेतुत्वात् । नान्त्य: । परम्पराघटकाऽपूर्वानुपस्थितेः । अतः 'यागविषयक कार्यम्' इति प्रथमबोधाद् अपूर्वोपस्थितौ तद्वारा यागे स्वर्गसाधनत्वग्रहात् तत्र कार्यत्वबोध इत्युक्तम् । नियोज्यत्वं च पदानुपस्थितम् अपि योग्यतया शाब्दबोधे
भासते, 'द्वारम्' इत्यस्य 'पिधेहि' इतिवत् । याग में स्वर्गसाधनता-ज्ञान के बिना इस प्रकार की (उपर्युक्त) 'नियोज्यता' प्रकट नहीं हो सकती और न ही (प्रथम बोध में) याग में स्वर्ग की साधनता जानी जा सकती है। क्योंकि (याग में) स्वर्ग-साधनता साक्षात् मानी जाय या परम्परया ? प्रथम विकल्प इस लिये ठीक नहीं है कि शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला याग (बहुत) समय के बाद होने वाले स्वर्ग-रूप 'फल' में साक्षात् हेतू नहीं है । अन्तिम विकल्प इसलिये ठीक नहीं है कि परम्परा (याग तथा स्वर्ग के मध्य) में रहने वाले 'अपूर्व' का ज्ञान (उपर्युक्त वाक्य का एक अर्थ करने में) नहीं हो पाता । इसलिये “यागविषयक 'कार्य' (अपूर्व)" इस प्रथम बोध के द्वारा 'अपूर्व' का ज्ञान करा देने के बाद उस 'अपूर्व' के द्वारा याग में स्वर्गसाधनता का निश्चय हो जाने से वहां (याग में) 'कार्यता' ('यह कार्य करना १. ह.- यज्ञे । २. ह. - ज्ञातुम् ।
३. निस०, काप्रशू० ---कालन्तरभाविनि ।
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