Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि देश-विशेष तथा तथा काल-विशेष ( ये दोनों अधिकरण) 'प्रागभाव' तथा 'प्रतियोगी' (दोनों) में अन्वित होते हैं । ' परश्वः प्राङ्गणे मैत्रो भविष्यति' का अर्थ होगा 'परसों दिन में होने वाला तथा प्राङ्गरण में होने वाला, उत्पत्ति से पूर्व, जो 'प्रागभाव' उसके 'प्रतियोगी', अर्थात् 'उत्पत्ति', का प्राश्रय, परसों होने वाला तथा प्राङ्गण में होने वाला, मैत्र । इस कारण 'प्रतिव्याप्ति' दोष नहीं होगा । इस (अधिकरण का 'प्रागभाव' तथा 'प्रतियोगी' दोनों में अन्वय होता है" इस कथन) से कल होने वाले घड़े के लिये 'ग्रद्य भविष्यति' (आज घड़ा उत्पन्न होगा ) इस प्रयोग का निराकरण हो गया ।
कुछ अन्य विद्वानों का यह विचार है कि यहां 'भविष्यत्' काल के लक्षरण में 'उत्पत्ति' पद देने की आवश्यकता नहीं है । देश तथा काल इन दोनों ग्रधिकरणों का 'प्रागभाव' तथा 'प्रतियोगी' दोनों में अन्वय कर लेने से ही उपर्युक्त 'प्रतिव्याप्ति' दोष का निराकरण हो जाता है क्योंकि कल उत्पन्न होने वाले मैत्र का 'परसों' इस कालरूप अधिकरण में तथा 'प्राङ्गण' इस देशरूप अधिकरण में 'प्रागभाव' नहीं हो सकता। इसलिये 'भविष्यत् ' काल का लक्षरण घटित न होने के कारण यहाँ ' परश्वः प्राङ्गणे मैत्रो भविष्यति' यह प्रयोग नहीं हो सकता ।
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एतेन श्वोभाविनि
इत्याहुः - 'भविष्यत् ' काल के इस दूसरे लक्षण के अनुसार देश तथा काल रूप अधिकरण का 'प्रतियोगी' (उत्पत्ति) में ग्रन्वय करने से जो उत्पत्ति जिस काल में होगी उसके लिये वही काल 'भविष्यत्' काल होगा । इसलिये कल होने वाले घड़े के लिये 'अद्य भविष्यति' प्रयोग नहीं हो सकता ।
परन्तु इस लक्षरण को भी सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जा सकता क्योंकि अधिकरण का 'प्रागभाव' के साथ ग्रन्वय करना कुछ उचित नहीं प्रतीत होता । इसका कारण यह है कि परसों के 'प्रागभाव' को वर्तमान कालीन 'प्रागभाव' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह वर्तमान नहीं है । इसलिये 'भविष्यत् ' काल के लक्षण में 'उत्पत्ति' पद का होना आवश्यक है ।
१.
२.
['नश्' धातु के 'लुट्' तथा 'लुट' लकार के प्रयोग के विषय में विचार ]
'नंक्ष्यति' इत्यादी' वर्तमान प्रागभाव - प्रतियोग्युत्पत्तिकत्वं प्रतियोगित्वं च प्रत्ययार्थः । ' श्वो घटो नक्ष्यति' इत्यादौ ' श्वोवृत्तिः वर्तमान- प्रागभाव - प्रतियोगिनी या उत्पत्ति: तदाश्रय-नाशप्रतियोगी घटः' इत्यन्वयबोधः । यत्त्वत्र ‘वर्तमान-प्रागभाव-प्रतियोगित्वम् एव प्रत्ययार्थः' इति ' तन्न । श्वोभावि-नाशके घंटे 'ग्रद्य नश्यति' इति प्रसंगात् ।
ह० - इत्यादौ तु ।
ह० - प्रत्ययार्थः । तत्र वंमि० -- प्रत्ययार्थः । तन्न ।
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