Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
भी तो नाश का 'प्रतियोगी' घट है ही, घट का ही नाश वहां पर भी हुआ है। इसलिये 'वर्तमानकालीन उत्पत्ति' को 'लट्' का अर्थ मानना भी प्रावश्यक है। अत: इन दोनों अर्थों को नैयायिक 'लट्' से सम्बद्ध करते हैं ।
इसी बात को दीधितिकार ने यों कहा है कि 'नाश' क्रिया में केवल वर्तमान काल का अन्वय मानने पर विनष्ट घट के लिये भी 'नश्यति' का प्रयोग होने लगेगा। इसलिये 'उत्पत्ति' को भी 'लट्' का अर्थ मान कर उसमें ही काल का अन्वय करना चाहिये । परन्तु गदाधरभट्ट आदि नव्य नैयायिकों का यह विचार है कि धात्वर्थ 'नाश' में 'उत्पत्ति' अर्थ भी समाविष्ट है, अर्थात् 'नाशत्व' का अर्थ ही है 'उत्पत्ति-युक्त अभाव । अतः धातु के वाच्य अर्थ में समाविष्ट 'उत्पत्ति' में ही काल का अन्वय करना उचित है। दूसरे विद्वान् यह कहते हैं कि 'वर्तमानता' का, 'उत्पत्तिमत्त्व' सम्बन्ध से, धात्वर्थ 'नाश' में अन्वय होने के कारण चिर-नष्ट घट के लिये 'नश्यति' प्रयोग नहीं होगा। अतः 'पाख्यात' के 'वर्तमानता' तथा 'प्रतियोगिता' ये दो अर्थ मानने युक्त हैं न कि 'वर्तमान-कालीन उत्पत्ति' तथा 'प्रतियोगिता' (द्र०- व्युवा०, आख्यात प्रकरण पृ० ३४१) ।
[इस विषय में अन्य प्राचार्यों का मत]
केचित्तु लत्वमेवात्र प्रतियोगित्वस्य वृत्यवच्छेदक ल ट्त्वन्तु तादृशोत्पत्तिकत्वस्य । एकधर्मावच्छिन्नवृत्तिद्वयस्यैव न युगपद् बोधकत्वम् । अन्यथा 'दण्डेन' इत्यादौ करणत्वै
कत्वयोर्बोधो न स्याद् इत्याहुः। कुछ प्राचार्य 'लत्व' ('ल') को ही यहां 'प्रतियोगिता' (अर्थ) की वृत्ति ('लक्षणा') का अवच्छेदक मानते हैं तथा 'लट्त्व' (लट्') को वैसी (वर्तमानकालिक) उत्पत्तिकता (उत्पत्तिरूप अर्थ) की ('वृत्ति' अर्थात् 'अभिधा' का अवच्छेदक मानते हैं)। एक 'धर्म' से अवच्छिन्न दो 'वृत्तियाँ एक साथ (अर्थ का) बोधक नहीं हो सकती (भिन्न भिन्न 'धर्म' से अवच्छिन्न दो 'वृत्तियां' तो एक साथ अर्थ का बोध करा ही सकती हैं)। अन्यथा (यदि भिन्न भिन्न 'धर्म' से अवच्छिन दो 'वृत्तियों को भी एक साथ अर्थ का बोधक न माना गया तो) 'दण्डेन' इस पद में 'करणत्व' तथा 'एकत्व' का (एक साथ) बोध नहीं हो सकेगा।
'धटो नश्यति' इस प्रयोग के अर्थ-विवेचन में, पहले मत में, नैयायिक विद्वानों ने 'लट' के ही 'वर्तमानकालीन उत्पत्ति' तथा 'प्रतियोगिता' ये दो अर्थ माने हैं। एक अर्थ के लिये 'अभिधावृत्ति' तथा दूसरे के लिये 'लक्षणावृत्ति' का आश्रय लिया गया। परन्तु दोनों 'वृत्तियां' 'लट्त्व' रूप एक धर्म से अवच्छिन्न हैं। ऐसी स्थिति में दोनों 'वृत्तियों' को परस्पर विरोधी माना जा सकता है । इसलिये दोनों 'वृत्तियों' के आश्रय के रूप में १. ह.--वृत्तितावच्छेदकत्वम् ।
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