Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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लकारार्थ-निर्णय
२८३
होता है कि कहने वाला हमें किसी कार्य-विशेष को करने के लिये प्रेरित कर रहा है । इस तरह यहां जो 'भावना' ('व्यापार' अथवा क्रिया) है वह शब्दरूप है।
'प्रार्थी भावना', प्रेरणा या प्रवृत्ति के अनुकूल 'व्यापार' न होकर, धात्वर्थरूप 'फल' के अनुकूल होने वाला 'व्यापार' है जो पाख्यात'-('लकार') मात्र का वाच्य अर्थ है। इसलिये 'लिङ्' के अतिरिक्त अन्य लकारों में 'यार्थी भावना' का कथन माना गया है तथा 'लिङ् लकार' में दोनों-'शाब्दी' तथा 'प्रार्थी'-भावनाओं का कथन मीमांसकों ने माना है क्योंकि वहां 'पाख्यातत्व' तथा 'लिङ्त्व' दोनों ही हैं। इनमें पहले से 'यार्थी भावना' तथा दूसरे से 'शाब्दी भावना' का ज्ञान होता है (द्र०-अर्थसंग्रह ४-८)।
प्रथमान्तार्थ...."नैयायिका:-नैयायिक विद्वान् यह मानते हैं कि 'तिङन्त' पदों से जो ज्ञान होता है उसमें प्रथमा विभक्त यन्त शब्द का अर्थ प्रधान होता है । इन विद्वानों के अनुसार 'लकार' का अर्थ है 'कृति' अथवा 'प्रयत्न' तथा प्रथमान्त पद के अर्थ में 'पाख्यातार्थ' अथवा 'लकारार्थ' विशेषण बनता है तथा प्रथमान्त पद का अर्थ विशेष्य बनता है । इसलिये 'चैत्रः तण्डुलं पचति' इस वाक्य का नैयायिक-सम्मत अर्थ होगा "चावल रूप 'कर्म' का जो पकना रूप 'व्यापार' उसके अनुकूल 'प्रयत्न' वाला चैत्र' । नैयायिकों के इन सिद्धान्तों के विषय में इस ग्रन्थ के धात्वर्थप्रकरण (पृ० १६०-१८४) में विस्तार से विचार किया जा चुका है।
द्वितीयाद्यर्थ" ..'अन्वयः-अन्य द्वितीया' आदि विभक्तियों के अर्थ 'कर्मत्व' आदि का तो 'क्रिया' में ही अन्वय होगा-ऐसा सभी विद्वान् मानते हैं। वस्तुतः 'कारकत्व' का सम्बन्ध ही 'क्रिया' से है । "क्रिया' से सम्बद्ध हुए बिना तो 'कारकों' की कारकता ही निष्पन्न नहीं हो सकती। अत: 'द्वितीया' आदि विभक्तियों के अर्थ 'कर्मत्व', 'करणत्व' आदि का अन्वय तो 'क्रिया' में ही होगा। इसीलिये 'कारक' की परिभाषा ही की गयी-"क्रियानिर्वर्तकत्वं कारकत्वम्", अर्थात 'क्रिया' का निष्पादक ही 'कारक' होता है।
['लङ' तथा 'लुह' लकार के अर्थ के विषय में विचार]
लङस्तु शक्यो ह्योऽनद्यतन कालः । लुङस्तु भूतसामान्यम् । भूतत्वं च वर्तमानध्वंसप्रतियोग्युत्पत्तिकत्वम् । न तु तादृशप्रतियोगित्वम् एव । चिरोत्पन्नेऽपि 'पूर्वेधुरभवत्' इति प्रत्ययापत्तेः । 'नष्टः' इत्यादौ नाशे तदन्वयासम्भवाच्च । उत्पत्तेस्तु देशकालादौ अन्वयान्न दोषः । 'अभवत्' इत्यादौ तु धातुना उत्पत्तिः प्रत्याय्यते 'नष्टः' इत्यादौ तादृशोत्पत्तिकत्वं प्रत्ययेन इति विशेषः ।
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