Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
कर्ता है, जो वर्तमानकालिक है तथा जो 'ग्राम' रूप कर्म में होने वाले 'संयोग' रूप 'फल' के अनुकूल है ऐसा 'व्यापार"--यह शाब्द बोध होता है।
प्रामो गम्यते मैत्रेण-कर्मवाच्य के 'ग्रामो गम्यते मैत्रेण जैसे प्रयोगों में शाब्द बोध में फल की प्रधानता होती है । इस दृष्टि से, "क्रियते यत् सा किया' इस ('कर्म' कारक वाली) व्युत्पत्ति के अनुसार 'क्रिया' शब्द का अर्थ 'फल' माना गया । यहाँ "मंत्र है 'कर्ता' जिसका तथा जो वर्तमानकालिक है ऐसे 'व्यापार' से उत्पन्न होने वाला और 'एकत्व' संख्या से विशिष्ट जो ग्राम रूप 'कर्म' उस में रहने वाला संयोग रूप 'फल' यह शाब्द बोध होता है।
[वर्तमान काल की परिभाषा]
वर्तमानकालत्वं च प्रारब्धापरिसमाप्तक्रियोपलक्षित
त्वम् । वर्तमानकालता (की परिभाषा) है प्रारम्भ की गयी, अपरिसमाप्त, क्रिया से उपलक्षित होना।
'वर्तमान' आदि शब्द काल से सम्बद्ध हैं, कालगत हैं। अतः उसकी परिभाषा काल से सम्बद्ध ही हो सकती है, पृथक् नहीं। इसलिए वह काल, जो एक ऐसी क्रिया' का प्राश्रय है जो प्रारम्भ तो किया गया पर सर्वथा समाप्त नहीं हुआ, 'वर्तमान' काल है । 'क्रिया' से उपलक्षित होना, अर्थात् 'क्रिया' का आश्रय बनना। इस काल के मध्य में होने वाली 'पचन' आदि मुख्य क्रियाओं की किसी भी अवयवभूत क्रिया के लिये 'पचति' आदि 'लडन्त' शब्दों का प्रयोग किया जाता है। कोण्डभट्ट ने 'वर्तमान' काल की दूसरी परिभाषा दी है "भूतभविष्यद्भिन्नत्वं वर्तमानत्वम्", अर्थात 'भूत'काल तथा 'भविष्यत्' काल से भिन्न काल 'वर्तमान' काल है। काल के तीन ही भेद हैं इसलिये दो से भिन्न करके तीसरे को जाना जा सकता है।
_ 'पात्मा अस्ति' (प्रात्मा है), 'पर्वताः सन्ति' (पर्वत हैं) जैसे प्रयोगों में 'आत्मा' आदि के नित्य होने के कारण आत्मघारणानुकूल 'व्यापार' आदि को नित्य मानना होगा । अतः इन प्रयोगों में 'क्रिया' के प्रारम्भ न होने से वर्तमान काल का उपर्युक्त लक्षण घटित न हो सकेगा। इस अव्याप्ति दोष का निराकरण यह कह कर दिया गया कि आत्मा के नित्य एवं उत्पत्ति-रहित होने पर भी उसके पाश्रय या 'उपाधि'भूत शरीर की उत्पत्ति आदि धर्मों से युक्त होने के कारण शरीरविशिष्ट प्रात्मा की उत्पत्ति आदि की कल्पना करके 'पात्मा अस्ति' में 'वर्तमानता' की उपपत्ति हो जाती है ।
'पर्वताः सन्ति' में भी यद्यपि पर्वत आदि का आत्मघारणानुकूल 'व्यापार' नित्य है तथा उत्पत्ति आदि धर्मों से रहित है। परन्तु भिन्न भिन्न कालों में होने वाले राजा
आदि की क्रिया के उत्पत्ति आदि गुणों से युक्त होने के कारण उन क्रियाओं से विशिष्ट पर्वतों का आत्मधारणानुकूल 'व्यापार' उत्पत्ति प्रादि से युक्त है। इस तरह यहां भी
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