Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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२५६
वैयाकरण-सिद्धांत-परम-लघु-मंजूषा चारों (पदों) में ही 'प्रवर्तना' रूप (धर्म') विद्यमान है। उसी ('प्रवर्तना' अर्थ) में 'लिङ्' (लकार) का विधान करना चाहिये । भेद ('विधि' अादि भिन्न भिन्न अर्थो') की विवक्षा से क्या (लाभ) ?
_ 'लिङ् लकार का विधान उपर्युक्त 'विधि,' निमंत्रण', 'ग्रामंत्रण,' 'अधीष्ट', 'सम्प्रश्न' तथा 'प्रार्थना' इन ६ अर्थों में किया गया। विधायक सूत्र का निर्देश ऊपर किया जा चुका है। इन ६ अर्थों में विधि' की प्रमुखता होने के कारण इस लकार को 'विधिलिङ' कहा जाता है। एक दूसरे सूत्र 'आशिषि लिङ्लोटौ" (पा० ३.३.१७३) से जिस 'लिङ्' का विधान किया जाता है उसे 'पाशीलिङ्' कहा जाता है।
विधि-विधि' का अर्थ व्याख्याकारों ने अपने से छोटे को कार्य में प्रवृत्त होने के लिये प्रेरण करना' माना है। इस तरह 'विधि' का अभिप्राय आज्ञा देना है। भाष्यकार पतंजलि ने 'विधि' का अर्थ "प्रेषण' किया है'-'विधिर् नाम प्रेषणम्''(महा० ३.३.१६१) जिसकी व्याख्या करते हुए कैयट ने कहा है-- "भृत्यादेः कस्यांचित् क्रियायां नियोजनम्" (प्रदीप टीका)
निमन्त्रण-'निमंत्रण' शब्द का अर्थ है 'इस कार्य को अवश्य करना है अन्यथा दोष का भागी बनना पड़ेगा अथवा दण्ड मिलेगा' इस रूप में किसी को कार्य में प्रेरित करना। द्र०-"यन्नियोगतः कर्तव्यं तन्निमन्त्रणम्" (महा० ३.३.१६१) तथा-"असत्याम् अपि इच्छायाम् अकरणे सति अधर्मात्पत्तेनियमेन अवश्यम्भावेन यत् करणं तन्निमन्त्रणम्' (न्यास ३.३.१६१)।
प्रामन्त्रण--'अमन्त्रण' पद का अर्थ है 'प्रेरणा करते हुए भी कर्ता की इच्छा के ऊपर छोड़ देना, उसे कार्य को करने के लिये बाधित न करना'। इस तरह 'आमंत्रण' में अवश्यकर्तव्यता की स्थिति नहीं रहती, कार्य को करना न करना वक्ता की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है । द्र० --- "आमन्त्रण कामचारः", (महा० ३.३.६६) तथा--- "यद् इच्छयैव करणं न अनिच्छया, अकरणेऽपि दोषाभावात्, तद् आमन्त्रणम्” (न्यास ३.३.६६) । 'अधीष्ट' तथा 'सम्प्रश्न' का अर्थ ऊपर किया जा चुका है।
चतुर्णाम् अनुस्यूत-प्रवर्तनात्वेन · लाघवात्-यहाँ निर्दिष्ट 'विधि' आदि प्रथम चार शब्दों में किसी न किसी प्रकार 'प्रवर्तना' अथवा प्रेरणा की स्थिति पायी जाती है । इसलिये इन चारों को भिन्न भिन्न रूप में 'विधि' आदि का वाच्यार्थ न मान कर केवल 'प्रवर्तना' रूप एक वाच्यार्थ मानना चाहिये क्योंकि यह अर्थ चारों शब्दों में अनुगत है, व्याप्त है। ऐसा मानने में लाघव है। इसके विपरीत इन चारों भिन्न भिन्न अर्थों को वाच्य मानने में गौरव है।
अस्ति प्रवर्तनारूपम् विवक्षया-इस कारिका का प्राशय यह है कि 'लिङ' लकार का विधान केवल 'प्रवर्तना' अर्थ में ही करना चाहिये, अर्थात् इन 'विधि' आदि अनेक शब्दों को सूत्र में स्थान नहीं देना चाहिये क्योंकि उनसे किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि तो होती नहीं उलटे गौरव या सूत्र का विस्तार अधिक हो जाता है। भट्टोजि दीक्षित ने भी इस सूत्र की व्याख्या, में “प्रवर्तनायाम् इत्येव सुवचम्" कह कर इसी तथ्य की ओर संकेत किया है। पर केवल 'प्रवर्तना' (प्रेरणा) शब्द से काम नहीं चल
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