Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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दश-लकारादेशार्थ-निर्णय
२५६
अनुमान'अदि उपायों द्वारा उसका ज्ञान न हो सकने-के कारण उसे ही वैयाकरण 'लिङ्' का अर्थ मानता है।
न च बलवदनिष्टाननुबन्धित्वम्, द्वेषाभावेनान्यथासिद्धत्वात् --- 'इष्टसाधनता' के ज्ञान के समान ही, कार्य में प्रवृत्त होने के लिये, यह ज्ञान भी आवश्यक है कि इस कार्य से किसी बहुत बड़े अनिष्ट की उत्पत्ति नहीं होगी। जैसे-विष-मिश्रित सुस्वादु भोजन में हमारी प्रवृत्ति इसीलिये नहीं होती कि हम जानते हैं इसमें विष मिला हुआ है तथा सुस्वादुरूप 'इष्टसाधनता' के साथ साथ यह मृत्यु रूपी महान् अनिष्ट का भी कारण बनेगा । इसलिये नैयायिक इस प्रकार के प्रबल अनिष्ट के अनुत्पादक ज्ञान को भी 'लिङ' का अर्थ मानते हैं ।
परन्तु किसी भी व्यक्ति की प्रवृत्ति ऐसे कार्य में नहीं होती जहाँ कोई प्रतिबन्धक हेतु होता है । अत: किसी भी कार्य में प्रवृत्त होने के लिये प्रतिबन्धक के अभाव को भी अवश्य कारण मानना पड़ता है। इसीलिये सभी कारणों के उपस्थित होने पर भी यदि कोई प्रतिबन्ध या रुकावट आ जाती है तो कार्य नहीं होता । जैसे-चक्र, चीवर तथा कुम्हार के होते हुए भी यदि कुम्हार बीमार है तो घटोत्पत्तिरूप कार्य नहीं हो पाता । विषमिश्रित भोजन में भी तृप्ति सुख की अपेक्षा मृत्यु रूप प्रबल दुख की उत्पादकता के होने के कारण उस दुख की आशंका से उत्पन्न विरक्ति ही उस भोजन के करने में प्रतिबन्धक के रूप में उपस्थित होती है। जहाँ इस प्रकार का कोई प्रतिबन्धक नहीं होता वहाँ, भोजनादि कार्यों में, व्यक्ति की प्रवृत्ति होती है । इसलिए याग आदि में, जहाँ बहुत परिश्रम तथा धन की अपेक्षा सुखविशेष (स्वर्ग) की प्राप्ति होती है, स्वर्गाभिलाषी व्यक्ति की प्रवृत्ति होगी ही । इस तरह 'प्रतिबन्धकाभाव' को सर्वत्र कार्योत्पत्ति में कारण मानने पर प्रवत्ति में भी प्रतिबन्धकाभाव का ज्ञान स्वत: हो जाया करेगा ।
अतः 'अन्यथासिद्ध', अर्थात् अन्य प्रकार से प्रतिबन्धकाभावरूप कारण के द्वारा ही कार्य के सिद्ध, होने से 'बलवद्-अनिष्ट-अननुबन्धित्व' के ज्ञान (प्रबल अनिष्ट या दुख से असम्बद्ध होना रूप ज्ञान) को प्रवृत्ति में हेतु मानना अनावश्यक है ।
इस तरह 'कृति-साव्यता' के अनुमानगम्य होने तथा 'बलबद् अनिष्टाननुबन्धित्व' के 'मन्यथासिद्ध' होने अथवा अनुपयोगी होने के कारण केवल 'इष्टसाधनता' ही 'लिङ् लकार का वाच्य अर्थ है ऐसा व्याकरण के विद्वान् मानते हैं।
प्राचार्य मण्डनमिश्र को भी 'प्रवर्तना', अथवा प्रवृत्तिजनक ज्ञान के विषय के रूप में 'इष्टसाधनता' ही 'लिङ्' के अर्थ के रूप में अभिप्रेत है । द्र० -
पुंसां नेष्टाभ्युपायत्वात् क्रियास्वन्यः प्रवर्तकः । प्रवृत्तिहेतु धर्म च प्रवदन्ति प्रवर्तनाम् ॥
(वभूसा० पृ० १६३ में उद्धृत) इष्टाभ्युपायत्व (इष्टसाधनता) से अतिरिक्त, किया में पुरुष को प्रवृत्त कराने वाले, और कोई भी ('कृति-साध्यता' तथा 'बलवद्-अनिष्टाननुबन्धिता') नहीं है । प्रवृत्ति के हेतुभूत धर्म (इष्ट-साधनता) को ही 'प्रवर्तना' कहते हैं।
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