Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धांत-परम-लघु-मंजूषा से 'लेट्' के क्रिया पदों में 'अद' और 'पाट' ('आगम') विशेष है क्योंकि ('लेट्' लकार में) 'भवति', 'भवाति' (ये प्रयोग) देखे जाते हैं ।
पाणिनि ने “लिङर्थे लेट” सूत्र के द्वारा 'लेट्' लकार का विधान विधि' आदि उन्हीं अथों में किया जिनमें 'लिङ्' लकार का विधान किया गया है। ये 'विधि' यादि अर्थ हैं.---'विधि', 'निमन्त्रण', 'आमंत्रण, 'अधीष्ट', 'सम्प्रश्न' तथा 'प्रार्थना' ।
ये 'लेट्' लकार वाले प्रयोग केवल वेद तथा ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में मिलते हैं । इसलिये 'लेट्' का विधान भी पाणिनि ने केवल वैदिक प्रयोगों की दृष्टि से किया है । “लिङथे लेट्" सूत्र से पहला सूत्र है “छन्दसि लुङ्-लङ्-लिटः" (पा०३.४.६) । यहाँ से 'छन्दसि' पद की अनुवृत्ति इस सूत्र में आ रही है। इसीलिये सम्भवतः अर्थ की दृष्टि से, नागेश ने "छन्दसि लिङर्थे लेट" के रूप में सूत्र उद्धत किया है। भट्टोजि दीक्षित ने भी इसीलिये 'लेट् लकार को केवल 'छान्दस' कहा है--. "पंचमो (लेट) लकारस्तु छन्दोमात्रगोचरः' (सिकौ० --'तिङन्ते भ्वादयः' के प्रारम्भ में)।
लेटोऽ डाटौ इति विशेष:-नागेश ने 'लेट तथा 'लट् लकार के प्रयोगों में रूप की दृष्टि से केवल 'अट्' तथा 'पाट्' आगमों का ही अन्तर माना है। परन्तु यह बात केवल 'परस्मैपदी' धातुओं के विषय में ही, किसी हद तक, ठीक हो सकती है। 'प्रात्मनेपदी' धातुओं के प्रयोगों में तो और भी अन्तर पाये जाते हैं जिनका निर्देश स्वयं सूत्रकार पाणिनि ने अपने सूत्रों-"पात ऐ" (पा० ३.४.६५) तथा “वैतोऽन्यत्र" (पा०३.४.६६) में किया है। इनके उदाहरण हैं-'मन्त्रयते', 'मन्त्रयथै', 'शये', 'ईशै, 'गह्यात इत्यादि, जिनमें 'या' के स्थान पर 'ऐ' आदेश हो गया है। 'परस्मैपदी' धातुओं के विषय में भी नागेश का कथन बहुत उचित नहीं है क्योंकि उनमें भी कुछ और विशेषता पायी जाती हैं जिनका निर्देश-"इतश्च लोपः परस्मैपदेषु" (पा०३.४.६७) तथा “स उत्तमस्य" (पा०३.४.६८) में किया गया है । इनके उदाहरण हैं-'जोषिषत्', 'तारिषत्' तथा "करवाव,' 'करवाम' । इन प्रथम दो उदाहरणों में 'तिप्,' के 'इ' का लोप तथा बाद के उदाहरणों में 'वस्' 'मस्' के 'स्' का लोप हुआ है।
['लोट् लकार के स्थान पर पाने वाले 'तिङ' का अर्थ]
लोतिङस्तु विध्यादिरर्थः। तत्र 'अधीष्टम्' सत्कारपूर्वको व्यापारः, 'पागच्छतु भवान् जलं गृह्णातु' इत्यादौ । 'सम्प्रश्नः' अनुमतिः, 'गच्छति चेद् भवान् गच्छतु'
इत्यादौ । 'लोट' (लकार के 'आदेश' भूत) 'तिङ' के 'विधि' आदि (निमन्त्रण, आमन्त्रण, अधीष्ट, सम्प्रश्न, प्रार्थना) अर्थ हैं। उनमें, 'अधीष्ट' (का अर्थ) है सत्कार पूर्वक 'व्यापार' (क्रिया में लगाना)। जैसे-'आगच्छतु भवान् जलं १. ह.-अघीष्ट: ।
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