Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वश - लकारादेशार्थ निर्णय
२४७
है, अर्थात् इन प्रत्ययों की समीपता में 'लादेश' 'कर्म' कारक का वाचक होता है तथा ये प्रत्यय 'लादेश' की इस वाचकता के द्योतक होते हैं । इसके विपरीत ' शप्', 'इनम्'
दिप्रत्ययों की उपस्थिति में 'लादेश' का अन्वय 'व्यापार' के श्राश्रय 'कर्ता' में होता है, अर्थात् इन प्रत्ययों की सन्निधि में 'लादेश' 'कर्ता' कारक का वाचक होता है तथा प्रत्यय इस बात का द्योतन करते हैं ।
तत्र तिसमभिव्याहारे "कालस्तु व्यापारे :- यहां 'लादेश' ( तिङ्) के जो अनेक अर्थकालविशेष, कारकविशेष, इत्यादि कहे गये हैं उनमें परस्पर संगति या विशेष्य विशेषरणभाव का अन्वय इस प्रकार माना गया है कि 'सङ्ख्या' 'कारकों' ('कर्ता' या 'कर्म) के प्रति विशेषरण होती है तथा 'काल' धात्वर्थभूत 'व्यापार' के प्रति । इस व्यवस्था की पुष्टि में नागेश ने पुन: दीक्षत की कारिका उद्धृत की है ।
"फले प्रधानं व्यापारः " -- कारिका के तृतीय चरण में यह प्राशय व्यक्त किया गया है कि 'फल' के प्रति 'व्यापार' प्रधान ( 'विशेष्य' ) है तथा 'फल' उसका 'विशेषण' है । 'ग्रामं गच्छति चैत्र:' जैसे कर्तृवाच्य के प्रयोगों में " ग्राम रूप 'कर्म' में रहने वाले 'उत्तर देश- संयोग' रूप 'फल' के अनुकूल, तथा 'एकत्व संङख्या' से युक्त चैत्र है 'कर्ता' जिसमें ऐसा, वर्तमानकालिक 'व्यापार " इस रूप में 'व्यापार' - प्रधान शाब्दबोध होता है । इसी तरह 'ग्रामो गम्यते चैत्रेण' जैसे कर्म - वाच्य के प्रयोगों में भी 'चैत्र रूप 'कर्ता' से उत्पन्न वर्तमानकालिक, 'एकत्व' सङख्या से युक्त, तथा ग्राम रूप 'कर्म' में विद्यमान जो संयोग रूप 'फल' उसके अनुकूल होने वाला, "व्यापार" यह बोध होता है । यहाँ भी 'व्यापार' प्रधान हो शाब्दबोध है । कुछ विद्वान् कर्तृवाच्य की दृष्टि से "फले प्रधानं व्यापारः," तया कर्मवाच्य के प्रयोगों की दृष्टि से "फलेऽप्रधानं व्यापारः" पाठ मान कर अपने नवीन मत का प्रतिपादन कर लेते हैं । इसी मत को नागेश ने भी माना है तथा यास्क के वचन में 'भाव' के स्थान पर 'क्रिया' पद रख कर तथा उसकी द्विविध व्युत्पत्ति करके उसकी पुष्टि भी की है ।
तिङर्थस्तु विशेषणम् : - 'फल' तथा 'व्यापार' इन दोनों के प्रति तिङर्थ - 'कर्ता', 'कर्म', 'संख्या' तथा 'काल' - ' विशेषरण' होते हैं । इनमें भी 'कर्ता' तथा 'कर्म' क्रमशः 'व्यापार' तथा 'फल' के 'विशेषण' हैं । 'तिङर्थ' रूप 'कर्ता' 'व्यापार' का 'आधाराधेयभाव' से 'विशेषण' है । श्राधार है 'कर्ता' तथा आधेय है 'व्यापार' क्योंकि 'पचति' आदि कर्तृवाच्य के प्रयोगों में कर्तृनिष्ठ 'व्यापार' का बोध होता है । इसी तरह तिङर्थ रूप 'कर्म' 'फल' का 'विशेषण' है। यहां भी आधार प्राधेय सम्बन्ध से ही विशेष्य-विशेषरण भाव मानना चाहिए। 'कर्म' आधार है तथा 'फल' प्राय है क्योंकि 'पच्यते' आदि कर्मवाच्य के प्रयोगों में तण्डुल में ग्राश्रित विक्लृत्ति का बोध होता है ।
ग्रामं गच्छति चंत्र: - 'ग्रामं गच्छति चैत्र:' जैसे कर्तृवाच्य के प्रयोगों में जो शाब्द बोध होता है उसमें 'व्यापार' की प्रधानता रहती है श्रौर 'क्रियते यया सा क्रिया' इस ('करण' कारक वाली) व्युत्पत्ति के अनुसार 'क्रिया' शब्द का अर्थ है 'व्यापार' | इस प्रकार 'ग्रामं गच्छति चैत्रः' प्रयोग से - " एकत्व संख्या से विशिष्ट चैत्र जिसका
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