Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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निपातार्थ-निर्णय
२४१ कल्पना ये तीन दोष (उपस्थित होते) हैं। फिर भी किसी और उपाय के न होने के कारण (इन दोनों को) मान लिया जाता है-ऐसा वृद्ध लोग कहते है।
“पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः" इस (वाक्य) के 'नियम' रूप से भाष्य में व्यवहूत होने के कारण तथा ('नियम' और 'परिसंख्या' दोनों में) अन्य के निवारणरूप प्रयोजन के एक होने के कारण 'नियम' शब्द के द्वारा 'परिसंख्या' का भी ग्रहण व्याकरण में किया जाता है। यह संक्षेप (से 'निपातों के विषय में विवेचन) है।
विधिरत्यन्तम् अप्राप्ते""परिसंख्या' विधीयते-इस कारिका में 'विधि','नियम' तथा 'परिसंख्या' इनकी परिभाषायें संक्षेप में दी गयी हैं । 'विधि' उन विधान वाक्यों को कहते हैं जो ऐसी बातों का विधान करते हैं जिनका पहले किसी वाक्य से विधान किया गया हो। इसीलिये, विधान की पहले से सर्वथा अप्राप्ति होने के कारण, 'विधि' को वस्तुतः 'अपूर्व विधि' कहा जाता है । 'विधि' का उदाहरण है - "स्वर्गकामो अश्वमेधेन यजेत", क्योंकि अश्वमेध याग करने का विधान इस वाक्य से पहले किसी अन्य वाक्य द्वारा नहीं किया गया । 'नियम' तथा 'परिसंख्या' के स्वरुप का विवेचन तथा उदाहरण का प्रदर्शन ऊपर किया जा चुका है।
यहां 'नियम' के उदाहरण के रूप में 'व्रीहीन अवहन्ति' इस वाक्य को प्रस्तुत किया गया है । धानों की भूसी को अलग करने को निस्तुषीकरण कहा जाता है। यह निस्तुषीकरण दो उपायों से हो सकता है नखों से धानों को तोड़कर अथवा मुसल द्वारा कूटकर । 'मुसल द्वारा धानों को कूटना' इस उपाय की पाक्षिक प्राप्ति स्वतः है । इस पाक्षिक प्राप्ति के होने पर भी, नख-विदलन द्वारा निस्तुषीकरण के पक्ष में मुसलावघात की अप्राप्ति है। इस प्रकार पाक्षिक अप्राप्ति में 'व्रीहीन अवहन्ति' यह वाक्य नियम करता है कि मुसलावघात से ही धान की भूसियों को अलग करना चाहिये -वही पुण्य जनक है।
___ यद्यपि 'परिसंख्यायां' 'नियमे च "वृद्धाः -- 'नियम' तथा 'परिसंख्या' के वाक्यों में नियमन की स्थिति लगभग समान है इसलिये दोनों में ही तीन प्रकार के दोष उपस्थित होते हैं। पहला दोष (स्वार्थ की हानि) यह है कि इनमें वाक्य को अपने वाच्यार्थ का परित्याग करना पड़ता है। जैसे "ब्रीहीन् अवहन्ति" इस 'नियम' वाक्य में वाच्यार्थ (धानों को कूटता है) को छोड़ना पड़ता है, उसका परित्याग करना पड़ता है। इसी प्रकार 'परिसंख्या' के वाक्य--पंच “पञ्च-नखा भक्ष्याः' में 'पांच पांच-नख वाले भक्ष्य हैं' इस वाच्यार्थ का परित्याग करना पड़ता है।
दूसरा दोष (प्राप्त का बाध) यह है कि प्राप्त अर्थ का बाध स्वीकार करना पड़ता है । जैसे---"व्रीहीन अवहन्ति" में, पुरोडाशविधायक वाक्य से प्राप्त, नखों से भूसी को अलग करने रूप अर्थ की बाधा होती है। इसी प्रकार 'पंच पंचनखा भक्ष्याः' इस वाक्य में भी स्वत: प्राप्त कुत्ते आदि के मांस-भक्षण रूप अर्थ की बाधा होती है।
तीसरा दोष (परार्थ की कल्पना) यह है कि इन 'नियम' तथा 'परिसंख्या' के वाक्यों में एक दूसरे अर्थ की कल्पना करनी पड़ती है । जैसे- "व्रीहीन अवहन्ति” इस 'नियम'-वाक्य
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