Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा बाधकालिकम् इच्छाजन्यं ज्ञानम् एव 'पाहार्यम्'--'आरोप' के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये 'आरोप' तथा 'पाहार्यज्ञान' को एक मानते हुए यहाँ 'पाहार्यज्ञान' की परिभाषा दी गयी है । बाधक ज्ञान के निश्चित रूप में विद्यमान होने पर भी वक्ता जब अपनी इच्छा से उस प्रकार के ज्ञान की कल्पना या 'आरोप' कर लेता है तो उसे 'आहार्य ज्ञान कहते हैं । जैसे- बालक में सिंहत्व नहीं है इस प्रकार का निश्चित ज्ञान होने पर भी वक्ता अपनी इच्छा से बालक में सिंहत्व की कल्पना कर लेता है। यह दूसरी बात है कि इस इच्छा का आधार कुछ न कुछ 'सादृश्य' ही होता है।
सादश्यादयस्त प्रयोगोपाधयः-- 'पर्य दास नत्र' के प्रयोगों में 'सादश्य' आदि अनेक अर्थों की प्रतीति होती है, जिनकी चर्चा यहीं नीचे ग्रन्थकार स्वयं करने जा रहा है । परन्तु उन अर्थों को 'न' का द्योत्य या वाच्य अर्थ नहीं माना जा सकता क्योंकि वे अर्थ सीधे, 'नन्' शब्द से प्रतीत न होकर, 'न' के अर्थ 'आरोप' में विद्यमान 'व्यंजकता वृत्ति' से व्यक्त होते हैं, जबकि ('आरोप') अर्थ सीधे 'नम्' शब्द की द्योतकता से द्योत्य हैं। इसी बात को 'प्रयोगोपाधयः' (प्रयोग के धर्म) कह कर नागेश ने सूचित किया है तथा 'माथिका अर्थाः' (अर्थ से व्यक्त अर्थ) कह कर उसे और स्पष्ट कर दिया है।
नर्थाः षट् प्रकीर्तिताः'- यहां उल्लिखित 'सादृश्य' आदि पांच अर्थ 'पर्युदास न' के अर्थ ('आरोप') से व्यक्त होने वाले अर्थ हैं । छठा अर्थ 'प्रभाव' 'प्रसज्यप्रतिषेध' का शाब्दिक अर्थ है । पर्यु दास के इन पांच आर्थिक अर्थों में भी 'सादृश्य की हो व्यापकता या प्रधानता है।
'गदहे' के लिये 'अनश्वोऽयम्' कहने पर अश्वसादृश्य की प्रतीति होती है । 'अमनुष्यं प्राणिनम् आनय' कहने पर मनुष्य से भिन्न प्राणी का ज्ञान होता है। उदर वाली कन्या को 'अनुदरा कन्या' कहने पर इस प्रयोग के अर्थ (उदरत्व का निषेध) से उदर की 'अल्पता' (पेट के छोटे होने) का ज्ञान होता है क्योंकि पेट वाले तो सभी होते हैं, फिर भी पेट का निषेध इसलिये किया जा रहा है कि जितना बड़ा पेट होना चाहिये, उतना बड़ा न होकर उससे छोटा है। इसी तरह ब्राह्मण को जब 'अब्राह्मण' कहा जाता है तो वहां ब्राह्मण की हीनता या निन्दनीयता की अभिव्यक्ति होती है । तुलना करो- 'अब्राह्मणोऽयं यस्तिष्ठन् मूत्रयति, अब्राह्मणोऽयं यस्तिष्ठन् भक्षयति (महा० २.१.६) । इसी प्रकार 'असुरः', 'अधर्मः' इन प्रयोगों में विरोध' अर्थ की प्रतीति होती है - 'सुरों (देवों) के विरुद्ध' तथा 'धर्म के विरुद्ध' ।
['पर्युदास न' प्रायः समासयुक्त मिलता है]
पर्युदासस्तु स्व-समभिव्याहृत-पदेन सामर्थ्यात् समस्त एव' । क्वचित्तु' 'यजतिषु ये यजामहं करोति नानुयाजेषु"
(आपस्तम्ब श्रौतसूत्र २४. १३. ५) इत्यादौ, 'घट: १. इसके बाद निस० तथा काप्रशु० में 'प्रायः' पाठ मिलता है जो अनावश्यक प्रतीत होता है। २, ह. में "क्वचित्त .."फलितो भवति" यह अंश अनुपलब्ध है।
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