Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा ग्राम्य-कुक्कुटः' (ग्रामीण मुर्गा अभक्ष्य है) यह कहने पर जंगली मुर्गा भक्ष्य है' यह प्रतीति होती है" । क्योंकि “सर्व वाक्यं सावधारणम्" (सभी वाक्य नियम सहित होते हैं) यह न्याय है। अलंकार-शास्त्र के प्राचार्य (मम्मट आदि) भी 'परिसंख्या' अलंकार के प्रकरण में (यह कहते हैं कि)-- "दूसरे प्रमाण से प्राप्त हुए वस्तु का पुनः शब्द के द्वारा कथन, दूसरे प्रयोजन के न होने के कारण, अपने समान अन्य वस्तु के अभाव की अभिव्यक्ति कराता है।"
भागवत (पुराण) में भी कहा है- "मैथुन, मांस, मद्य का सेवन लोक में प्राणी के लिये नित्य (स्वतः प्राप्त विषय) हैं। इनमें प्रेरणा अथवा विधान वाक्य (को अपेक्षा) नहीं है। (परन्तु) विवाह, यज्ञ तथा सुराग्रह-परक वाक्यों द्वारा इनकी व्यवस्था (इस लिये) की गयी कि इन (मैथुन, मांस, मद्य के सेवन) से निवृत्ति (ही) अभीष्ट है।"
'व्यवाय' (अर्थात्) मैथुन, आमिष' (अर्थात्) मत्स्य आदि (का मांस) तथा मद्य-इनका सेवन । 'जन्तोः' (अर्थात्) प्राणीमात्र के लिये। नित्य हैं(अर्थात) स्वभाव या इच्छा से ही प्राप्त हैं। इसलिये इनके विषय में 'चोदना' (अर्थात्) विधि (की आवश्यकता) नहीं है।
यदि ऐसा है तो- "ऋतौ भार्याम् उपेयात्" (ऋतुकाल में स्त्री के पास जाय), "हुतशेषं भक्षयेत्” (आहुति से बचे हुए मांस हवि का भक्षण करे), सौत्रामण्यां सुराग्रहान् गृह गाति' (सौत्रामणि याग में सुरापात्र को पकड़े तथा मदिरा पीवे)-ये वाक्य क्या निरर्थक हैं ? 'भार्याम्' (का अर्थ है) विवाहित स्त्री । इस पर (इस प्रश्न के उत्तर में) कहते हैं-'व्यवस्थितिः' (अर्थात्) इन कार्यों का पुनः विधान (ोर उससे अभिव्यक्त नियम) । नियम का प्रयोजन अन्य विधानों का निवारण करना होता है, इसलिये (भागवतकार ने) कहा- इन (मैथुन, मांस, मद्य के सेवन) से निवृत्ति (ही) इष्ट है । (यहां 'भार्या' आदि से) भिन्न (मैथुन आदि के सेवन से) यह शेष है। ____ क्वचिद् ‘एव' शब्दं विनापि नियम-प्रतीतिः-नागेश भट्ट ने यहाँ 'क्वचित्' शब्द के द्वारा जिन प्रयोगों की ओर संकेत किया है उन्हें तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। इन तीन प्रकारों का पारिभाषिक नाम है 'नियम', 'परिसंङ्ख्या' तथा 'अभ्यनुज्ञा' । इन तीनों ही प्रकार के प्रयोगों में एक प्रकार का 'अवधारण' या नियम पाया जाता है परन्तु इन--'नियम,' 'परिसंख्या' तथा 'अभ्यनुज्ञा' वाले -- वाक्यों में 'एव' का प्रयोग नहीं होता। बिना 'एव' शब्द के प्रयोग के ही ये वाक्य नियमरूप अर्थ को प्रकट करते हैं। यहां नागेश ने 'नियम' पद का प्रयोग 'नियम', 'परिसंङख्या' तथा 'अभ्यनुज्ञा' तीनों के लिये किया है क्योंकि तीनों में सामान्य रूप से नियम की स्थिति पायी जाती है।
नियम-'नियम' की परिभाषा है-"नियमः पाक्षिके सति" (तंत्रवातिक १.२.३४), अर्थात् एक पक्ष में किसी अन्य प्रमाण से 'विधि' की प्राप्ति होने पर भी
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