Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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निपातार्थ-निर्णय
२१६ "प्रसज्यायं क्रियागुणौ ततः पश्चान् निवृत्ति करोति' (यह 'न' 'क्रिया तथा 'गुण' की प्रसक्ति करा के फिर उनकी निवृति, अर्थात निषेध करता है)। ('गुण' का) उदाहरण है -- 'नास्माकम् एकं प्रियम्' (हमें एक प्रिय नहीं है)। (यहाँ) एक प्रिय का प्रतिषेध हो जाने पर बहुप्रिय का ज्ञान होता है। इसी तरह 'न सन्देहः' (सन्देह नहीं हैं) 'नोपलब्धि.' (ज्ञान नहीं है) इत्यादि 'गुण' के उदाहरण है क्योंकि 'सन्देह' आदि 'गुण' हैं। 'क्रिया' का उदाहरण है-- "अनचि च' (अच् के परे रहने पर द्वित्व नहीं होता है), गेहे घटो नास्ति' (घर में घड़ा नहीं है) इत्यादि।
सुबन्तेन असामर्थोऽपि समास:--'प्रसज्यप्रतिषेध' के विषय में उपर यह कहा जा चुका है कि यह विधि-प्रधान न होकर निषेध-प्रधान होता है तथा यहाँ 'न' का सम्बन्ध क्रिया के साथ होता है । यह 'प्रसज्यप्रतिषेध' सामान्यतया दो प्रकार का होता है-समासयुक्त एवं समासरहित ।
यह पूछा जा सकता है कि यहां 'न' का सम्बन्ध 'सुबन्त' पद के साथ न होकर 'क्रिया' के साथ होता है इसलिये, 'सुबन्त' पद के साथ 'एकार्थीभाव सामर्थ्य' न होने के कारण, "समर्थः पदविधिः" (पा० २.१ १) के नियमानुसार, 'प्रसज्यप्रतिषेध' के प्रयोगों में समास नहीं होना चाहिये।
इस प्रश्न का उत्तर यहां यह दिया गया कि 'प्रसज्यप्रतिषेध' के प्रयोगों में सामान्यतया समास नहीं हुआ करता । पर कुछ प्रयोगों में, अपवाद के रूप में, समास का प्रयोग भी पाया जाता है । इस अपवाद वाली स्थिति का ही संकेत आचार्य पारिणनि के सूत्र "असूर्यललाटयो शितपोः" में किया गया है। इस सूत्र से 'असूर्य' इस 'कर्म' वाचक शब्द के उपपद होने पर 'दृश्' धातु से 'खश्' प्रत्यय का विधान किया गया है । इसका उदाहरण है-'प्रसूर्यम्पश्या राजदारा:' (सूर्य को न देख सकने वाली रानियां) । यहां 'नञ्' का सम्बन्ध 'सूर्यम्' के साथ न होकर 'दृश्' क्रिया के साथ है'न देखने वाली' । इसलिये, 'न' तथा 'सूर्य' के परस्पर अन्वित न हो सकने रूप 'असमर्थता' के कारण, समास नहीं होना चाहिये था। परन्तु व्यवहार में यह प्रयोग प्रचलित था। इस कारण इस शब्द की सिद्धि के लिये पाणिनि को उपर्युक्त सूत्र बनाना पड़ा।
पाणिनि के सूत्र से सिद्ध होने वाला यह 'प्रसूर्यम्पश्या राजदाराः' प्रयोग सूचित करता है कि 'प्रसज्य प्रतिषेध' के कुछ और भी प्रयोग ऐसे मिल सकते हैं या मिलते हैं, जहाँ सामर्थ्य न होने पर भी समास किया जाता है । वैयाकरण ऐसे स्थलों में 'असमर्थ समास' मानते हैं। द्र० --'असूर्य' इति च असमर्थ समासोऽयम्, इशिना नत्रः सम्बन्धात्, सूर्यं न पश्यन्तीति' (काशिका ३.२.३६)।
क्रियापदं गुणस्याप्युपलक्षणम् --~-'प्रसज्यप्रतिषेध' में 'न' के अर्थ की प्रधानता होती है तथा उसका सम्बन्ध 'क्रिया' से होता है। परन्तु केवल 'क्रिया' के साथ ही सर्वत्र 'न' का सम्बन्ध दिखाई देता हो ऐसा नहीं है । 'क्रिया' के समान ही 'गुण' वाचक शब्दों के साथ भी 'न' का सम्बन्ध अनेक प्रयोगों में देखा जाता है। इसलिये
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