Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
दोनों ही-('रूपाभाव' तथा 'रूपकर्तृ काभाव') अभिन्न हैं, एक हैं। इसलिये 'रूपकृर्तृक “सत्ता' का प्रभाव इस शाब्दबोध के होने पर भी उससे 'फलित' अर्थ के रूप में 'रूपाभाव' अर्थ स्वतः प्रकट हो जायगा । इस रूप में पूर्वोक्त सिद्धान्त में कोई दोष नहीं आता।
'अरूपम् अस्ति' इत्यर्थकं वा तत् :-तीसरा समाधान यह दिया गया कि 'वायो रूपं नास्ति' इस वाक्य में 'रूपं नास्ति' यह अंश 'अरूपम्' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 'अरूपम्' यह जो समास का प्रयोग है, वह वैकल्पिक है, अर्थात्-'अरूपम्' तथा 'रूपं नास्ति' दोनों में से किसी एक का प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार जब 'अरूपम्' के अर्थ में 'रूपं नास्ति' का प्रयोग किया गया तो, 'अरूपम्' में 'प्रसज्यप्रतिषेध' न होकर ‘पयुदासप्रतिषेध' है तथा 'पर्युदास नम्' का अर्थ है 'पारोप', इसलिये, यहाँ 'रूपं नास्ति' का शाब्दिक अर्थ होगा-"प्रारोपित-रूपता वाला जो 'वायु' उस अधिकरण में रहने वाले जो स्पर्श ग्रादि वे हैं कर्ता जिसमें ऐसी 'सत्ता' और इस शाब्दबोध से 'रूपाभाव' की प्रतीति 'अर्थ से उत्पन्न ज्ञान' या 'फलित अर्थ' के रूप में हो जायगी (तुलना करो- "अत्यन्ताभावेऽपि 'प्रसक्तं हि प्रतिषिध्यते' इति न्यायेन आरोपितप्रसंगस्यव निषेधः । तेन 'वायौ रूपं नास्ति' इत्यादावपि वायौ रूपारोपं कृत्वैव निषेधो नत्रा बोध्यते इति विवेकः" वाचस्पत्यम् कोश)।
एतेन ताकिकोक्तम् अपास्तम् :- इस प्रकार वैयाकरणों का यह सिद्धान्त कि "प्रसज्यप्रतिषेध' का अत्यन्ताभाव रूप अर्थ क्रिया के प्रति 'विशेष्य' के रूप में तथा 'क्रिया' उसके 'विशेषण' के रूप में उपस्थित होती है" निर्दोष सिद्ध हो जाता है तथा इसके विपरीत नैयायिकों का सिद्धान्त-"अत्यन्ताभाव विशेषण के रूप में क्रिया के साथ अन्वित होता है" दोषयुक्त ठहरता है। इसलिये दूषित होने के कारण "अत्यन्ताभाव है 'विशेषण' जिसमें तथा क्रिया है 'विशेष्य' (प्रधान) जिसमें' ऐसा शाब्दबोध प्रसज्यप्रतिषेध में होता है" यह नैयायिकों का कथन उपर्युक्त विवेचन से खण्डित हो गया। [बुद्धिगत शब्द ही वाचक है तथा वही वाच्यार्थ भी है ]
नन्वेवं' घटसत्तारूपोऽर्थः प्रथमं बुद्धो ना निवर्तयितुम् अशक्यः सतो निषेधायोगात्, असतस्तु असत्त्वादेव निवृत्तिसिद्ध या निषेधो व्यर्थः । तदुक्तम्
सतां च न निषेधोऽस्ति सोऽसत्सु च न विद्यते ।
जगत्यनेन न्यायेन नअर्थः प्रलयं गतः ।। (प्रमाणवार्तिक, अध्याय, ४, श्लोक २२६) इति चेत् ? न "बौद्धो हि शब्दो वाचकः बौद्ध एव
अर्थो वाच्यः" इत्युक्तत्वात् बुद्धिसतोऽप्यर्थस्य नत्रा १. ह. में 'एवं....."अशक्यः' यह अंश अनुपलब्ध है । वहाँ 'ननु सतो निषेधायोगात्' पाठ है ।
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