Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा क्रिया का विशेष्य विशेषण भाव नहीं बन सकेगा। इसके अतिरिक्त 'तिङन्तार्थक्रियान्वय्येव' इस वाक्य के 'क्रिया' पद में 'गुण' पद का भी अन्तर्भाव मानना चाहिए क्योंकि ऊपर भाष्य की पंक्ति उद्धत करते हुए यह कहा गया है 'क्रिया' तथा 'गुण' दोनों की प्राप्ति या विधान कराकर फिर 'नन्' उनकी निवृत्ति करता है- "प्रसज्यायं क्रियागुणौ ततः पश्चान् निवृत्ति करोति" ।
तिसमभिव्यहतधातुजन्योपस्थिते. कारणत्वात् – 'प्रसज्यप्रतिषेध' के प्रयोगों में 'तिङन्त' (या 'कृदन्त') पद का अर्थ क्यों 'विशेषण' (अप्रधान) बनता है तथा 'न' का अर्थ ('अत्यन्ताभाव') 'विशेष्य' (प्रधान) बनता है इसका उत्तर यह है कि 'न' के 'अत्यन्ताभाव' रूप अर्थ को 'विशेष्य' रूप में उपस्थित करने का जो कार्य है उस कार्य का कारण है 'तिङ्न्त' अथवा 'कृदन्त' पद का अर्थ । इस प्रकार 'तिङ्न्त' अथवा 'कृदन्त' पद का जो अर्थ है उसके 'साधन' (विशेषण) होने के कारण 'न' के द्योत्य अर्थ का 'विशेष्य' होना स्वाभाविक ही है। इस कारण 'घटो नास्ति' का अर्थ है 'घटकर्तृकसत्ताप्रयोगिकोऽभावः,' अर्थात् घट है 'कर्ता' जिसका ऐसी सत्ता है 'प्रतियोगी' जिसमें वह 'प्रभाव' । घट, 'सत्ता' क्रिया का, 'कर्ता' है तथा 'सत्ता' अभाव का 'प्रतियोगी' है । इस प्रकार 'सत्ता' तथा 'अभाव' दोनों की समान-ग्राश्रयता अथवा समान-प्रधिकरणता से घट में मिल जाती है।
अतएव ... ''पुरुष-वचन-व्यवस्था उपपद्यते-न' के अर्थ 'अत्यन्ताभाव' को क्रिया तथा गुण के प्रति विशेष्य मानने से, व्याकरण की प्रक्रिया की दृष्टि से, एक लाभ यह है कि 'प्रसज्यप्रतिषेध' के प्रयोगों में 'पुरुष' तथा 'वचन' की व्यवस्था सुसंगत हो जाती है। इसके प्रदर्शन के लिये नागेशभट्ट ने चार उदाहरण दिये हैं । ये हैं.-'अहं नास्मि', 'त्व 'नासि', घटौ न स्तः' 'घटा न सन्ति'। इन सभी प्रयोगों में 'प्रभाव' अर्थ प्रधान है तथा उसका 'विशेषण' है 'सत्ता', क्योंकि 'सत्ता,' अभाव का 'प्रतियोगी' है ('सत्ताप्रतियोगिताकोऽभावः'--'सत्ता' है 'प्रतियोगी' जिसमें ऐसा 'अभाव') यह ज्ञान इन प्रयोगों से होता है। अब इस 'सत्ता' के 'कर्ता हैं' क्रमशः 'अहम', 'त्वम्', 'घटौ', 'घटाः'। इनमें 'सत्ता' तथा 'अभाव' दोनों की समान-अधिकरणता बन जाती है, इसलिये इन्हीं के अनुसार 'पुरुष' तथा 'वचन' की व्यवस्था संगत हो सकती है।
अन्यथा... - सा न स्यात् :- यदि उपर्युक्त सिद्धान्त के विपरीत 'नअर्थ' (अत्यन्ताभाव) को विशेषण तथा क्रिया को विशेष्य मान लिया जाए तो-जिस प्रकार 'मद् अभावोऽस्ति' इस प्रयोग में 'मत्प्रतियोगिताकाभावकर्तृ कसत्ता' ('मैं' है 'प्रतियोगी' जिसमें ऐसा 'प्रभाव' है 'कर्ता' जिसमें ऐसी 'सत्ता') इस अर्थ की प्रतीति होने के कारण, 'अभाव' 'कर्ता' है इसलिये उसके साथ, 'सत्ता' क्रिया का सामानाधिकरणय होने से, 'अभाव' के अनुसार 'अन्य पुरुष' तथा 'एकवचन' का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार-'अहं नास्मि' का अर्थ होगा 'अस्मत्प्रतियोगिताकाभावकर्तृ का सत्ता', अर्थात् 'मैं' है 'प्रतियोगी' जिसमें ऐसा 'प्रभाव' है 'कर्ता' जिसमें ऐसी 'सत्ता', न कि 'मत्कर्तृक-सत्ता-प्रतियोगिताकोऽभावः' अर्थात् 'मैं' है 'कर्ता' जिसका ऐसी 'सत्ता' है 'प्रतियोगी' जिसमें ऐसा 'प्रभाव'। दूसरे शब्दों में 'अभाव' की प्रधान रूप से प्रतीति न होकर 'सत्ता' की प्रधान रूप से प्रतीति होगी तथा उस 'सत्ता' का 'विशेषण' बनेगा 'प्रभाव' । इस तरह 'युष्मद्', 'अस्मद्' के साथ क्रिया का सामानाधिकरणय न होकर 'अभाव' के
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