Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
[ 'एव' निपात के विवध अर्थ ]
www.kobatirth.org
निपातार्थ - निर्णय
१.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
'एव' शब्दस्यार्थः ' अवधारणम्' 'प्रसम्भव' श्च । “एवे चानियोगे " ( महा० ६.१.६४ ) इति वार्तिके "नियोगो अवधारणम् । तदभावो असम्भवः" इति कय्टोक्त: । अनयोरर्थयोः 'एव' शब्दो द्योतकः । अतएव तं विनापि तदर्थप्रतीतिः । “सर्वं वाक्यं सावधारणम्" इति बृद्धोक्तं संगच्छते । “लवरणम् एव असौ भुङ्क्ते' इत्यादौ प्राचुयर्थकस्य, 'घट एव प्रसिद्धः' इत्यादौ प्रप्यर्थकस्य, 'क्वेव भोक्ष्यसे' इत्यादौ प्रसम्भवार्थकस्य च तस्य सत्त्वम्" इति - प्रालङ्कारिकाः ।
"L
'एव' शब्द का अर्थ है 'अवधारण' ( नियमन ) तथा 'असम्भव' क्योंकि " एवे चानियोगे" इस वार्तिक ( की व्याख्या) में 'नियोग' अर्थात् 'अवधारण' तथा उसका प्रभाव (अनियोग ) अर्थात् 'असम्भव' है" यह कैयट ने कहा है । इन दोनों प्रर्थों का 'एव' शब्द द्योतक है । इसीलिये उस ( 'एव' ) के ( प्रयोग के ) बिना भी उस ( 'एव') के अर्थ का ज्ञान होता है तथा "सर्वं वाक्यं सावधारणम्" (सभी वाक्य ग्रवधारण, अर्थात् नियम के सहित होते हैं) यह वृद्धों का कथन सुसंगत होता है । ( इसके अतिरिक्त) 'लवणम् एव प्रसौ भुङ्क्त' ( वह नमक ही खाता है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'अधिकता' अर्थ वाले, 'घट एव प्रसिद्ध, ' (घट भी प्रसिद्ध है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'भी' अर्थ वाले तथा 'क्वेव भोक्ष्यसे' ( कहां खाओगे ? अब तो कहीं भी खाना नहीं मिलेगा ) इत्यादि (प्रयोगों) में 'असम्भव' अर्थ वाले उस ( 'एव') की सत्ता है - ऐसा प्रलंकारिक - विद्वान् कहते हैं ।
२३१
I
" एवे चानियोगे ' ' इति कैप्टोक्तेः - कात्यायन की वार्तिक “एवे चानियोगे " से यह स्पष्ट है कि 'एव' निपात के 'नियोग' तथा 'अनियोग' दोनों ही अर्थ है । श्रन्यथा, यदि केवल 'नियोग' अर्थ ही होता तो, केवल 'अनियोग' अर्थ में ही कात्यायन ने 'एव' के साथ पररूप का विधान न किया होता । 'नियोग' का अर्थ है है 'अवश्यम्भाव' अथवा 'अवधारण' या 'नियमन' । 'अनियोग' का अर्थ है 'अनवक्लृप्ति' (सम्भावना ) या 'अनिश्चय' । इस 'प्रनिश्चय' अर्थ वाले 'एव' के साथ ही पररूप का विधान किया गया है । इसलिये 'नियोग' अर्थ वाले 'एव' के साथ " वृद्धिरेचि" ( पा० ६.१.८८ ) से प्राप्त वृद्धि होती है । इसीलिये किसी विद्वान् कहा है
अनवक्लृप्तौ यदा दृष्टः पररूपस्य गोचरः ।
एवस्तु विषयो वृद्ध नियमेऽयं यदा भवेत् ॥
( सिद्धान्तकौमुदी ६.१ ६४ की तत्त्वबोधिनी टीका में उद्धृत )
For Private and Personal Use Only
तुलना करो - "कैयटकृत प्रदीप टीका, महा० ६.१.९४. पृ० ६३६; नियोगोऽवश्यम्भावः, अवधारणम् तस्माद् अन्यत्र अर्थे पररूपं भवति "