Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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स्फोट- निरूपण
[नैयायिकों के इन तीनों विकल्पों का खण्डन ]
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दर्द
अव्य
तन्न । प्रद्येऽयं पूर्वोऽयं पर इत्यभिलापासम्भवेन व्यव हितोत्तरत्व-सम्बन्धायोगात्, नष्ट - विद्यमानयोर् वहितोत्तरत्व-सम्बन्धस्य वक्तुम् अशक्यत्वाच्च । द्वितीये शब्दज - शब्द - न्यायेन पद - प्रत्यक्षोपपादनेऽपि पदस्य अविद्यमानत्वेन तत्र शक्त्याश्रयत्वस्य ग्रहानुपपत्तेः । अविद्यमाने ग्राश्रयत्वाङ्गीकारे 'नष्टो घटो जलवान्' इत्याद्यापत्तेश्च । तृतीये येन क्रमेण अनुभवस् तेनैव क्रमेण तत् - संस्कार - स्थितिर् इत्यत्र विनिगमकाभावात् 'सरो रसः', 'नदी दीन : ' इत्यादौ विपरीत - संस्कारोबोधेन प्रत्येकम् प्रन्यार्थ - प्रत्ययापत्त ेः
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वह ठीक नहीं है । क्योंकि प्रथम (विकल्प) में 'यह पहले है', 'यह बाद में है' इस प्रकार के व्यवहार के असम्भव होने के कारण व्यवधान रहित उत्तरकालीनता का सम्बन्ध नहीं बन पाता । साथ ही नष्ट (पूर्व पूर्व उच्चरित वर्ण) और विद्यमान ( उत्तर उत्तर काल में उच्चार्यमाण वर्ण) में व्यवधानरहित उत्तरकालीनता का सम्बन्ध भी नही बताया जा सकता ।
द्वितीय (विकल्प) में 'शब्दजशब्द' न्याय से (सम्पूर्ण) पद की प्रत्यक्षता की सिद्धि कर देने पर भी ( साक्षात् ) पद के विद्यमान न होने के कारण उसमें 'शक्ति' की प्राश्रयता का ज्ञान सुसङ्गत नहीं हो पाता। क्योंकि अविद्यमान ( वस्तु) में श्राश्रयता मानने पर 'नष्ट घट जल का आधार है' इत्यादि (अनुचित व्यवहार ) होने लगेंगे ।
तृतीय (विकल्प) में जिस क्रम से ( वर्णों का ) श्रवरण होता है उसी क्रम से वह संस्कार में भी उपस्थित हो इसमें किसी निश्चायक हेतु के न होने के कारण 'सरः', 'रसः' तथा 'नदी' 'दीन' इत्यादि में विपरीत संस्कार के जागृत होने के कारण इस प्रकार के ) प्रत्येक (शब्द) में दूसरे अर्थ का ज्ञान होने लगेगा |
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श्राद्य अशक्यत्वाच्च - वस्तुतः नैयायिकों ने जो तीन विकल्प प्रदर्शित किये हैं। वे न केवल सर्वथा काल्पनिक हैं अपितु असङ्गत भी हैं। इनकी दृष्टि में वर्ण ही शब्द हैं तथा वे अनित्य हैं, वे उत्पन्न होते हैं तथा नष्ट होते हैं । इसलिये वर्गों की साक्षात् सत्ता तो रहती ही नहीं । अतः जब वर्ण रहते ही नहीं तो उनमें व्यवधानरहित उत्तरकालीनता का सम्बन्ध कैसे स्थापित हो सकता है । इस सम्बन्ध के