Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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धात्वर्थ-निर्णय
१५१
नागेश की परिभाषा ---"शब्दशास्त्रीय 'कर्म' संज्ञक अर्थ से अन्वित अर्थ वाले धातु 'सकर्मक' हैं" के अनुसार 'अध्यासिताः भूमयः' इत्यादि प्रयोगों में 'प्रास् 'आदि धातुओं की 'सकर्मकता' सिद्ध हो जाती है क्योंकि व्याकरण के सूत्र "अधिशीङ्स्थासां कर्म" के अनुसार 'अधि' उपसर्ग के साथ 'आस्' धातु के प्रयोग में 'आधार' की कर्म संज्ञा होती है। इसलिये 'कर्म' संज्ञक 'भूमि' रूप अर्थ से अन्वित होने वाले अर्थ का वाचक होने के कारण 'अधि+पास' को 'सकर्मक' माना जायगा ।
अन्वयश्च पृथगबुद्ध न संसर्गरूपः-यहां 'अन्वय' का अर्थ है धात्वर्थ से पृथग् ज्ञात 'कर्म' से अन्वित होना। इस कारण 'जीव्' धातु को 'सकर्मक' नहीं माना जा सकता क्योंकि वहाँ 'जीव' का अपना ही अर्थ है 'प्राण-धारणे' (प्राणों का धारण करना)। यहाँ 'प्राण' रूप 'कर्म' धात्वर्थ में ही अन्तर्भूत है-उससे पृथक् नहीं है ।
"सुप प्रात्मनः०"इति सूत्रे भाष्ये-"सुप प्रात्मनः क्यच्" इस सूत्र के भाष्य में 'क्यच'प्रत्ययान्त धातुरों को 'सकर्मक' माना जाय या नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में, पूर्वपक्ष के रूप में यह कहा गया कि इष्' धातु, जिसके अर्थ में 'क्यच्' प्रत्यय का विधान किया गया है, 'सकर्मक' है। इसलिये क्यजन्त धातु को भी 'सकर्मक' मानना चाहिये । परन्तु भाष्यकार पतंजलि ने इस पूर्वपक्ष का उत्तर देते हुए यह कहा कि -"अभिहितं तत्कर्मान्तर्भूतं धात्वर्थः सम्पन्नः । न चेदानीम् अन्यत् कर्म अस्ति येन सकर्मक: स्यात्" अर्थात् 'पुत्रीय' आदि नामधातुओं के द्वारा ही वह अर्थ कह दिया गया । अतः वह 'कर्म' अन्तर्भूत होकर धात्वर्थ में ही ही समाविष्ट हो गया। अब कोई अन्य 'कर्म' है नहीं जिसके कारण उसे 'सकर्मक' माना जाय । 'पुत्रीयति माणवकम्' (माणवक के साथ पुत्र के समान व्यवहार करता है) इस प्रयोग में तो दो 'कर्म'--'उपमानकर्म' तथा 'उपमेयकर्म' हैं। इसलिये 'उपमानकम' के अन्तर्भूत हो जाने पर भी, 'उपमेयकम' से अन्वित अर्थ वाला होने के कारण, धातु 'सकर्मक' हो जाती है।
['जा' धातु के अर्थ के विषय में विचार]
'जानातेः' विषयतया ज्ञानं फलम् । प्रात्ममनःसंयोगो व्यापारः । अत एव 'मनो जानाति' इत्युपपद्यते । अात्मात्रान्तःकरणम्, मनोऽपि तद्वृत्तिविशेषरूपम् । "प्रात्मा' प्रात्मानं जानाति' इत्यादौ अन्तःकरणावच्छिन्नः कर्त्ता शरीरावच्छिन्नं कर्म इति “कर्मवत्"
(पा० ३.१.८७) सूत्रे भाष्ये स्पष्टम् । 'ज्ञा' धातु का, 'विषयता' सम्बन्ध से (रहने वाला), ज्ञान 'फल' है तथा आत्मा और मन का (ज्ञानानुकूल) संयोग 'व्यापार' है। इसलिये 'मनो जानाति' १. ह० तथा लम० (पृ०५८२) में 'आत्मा' अनुपलब्ध । २. ह०, वंमि० -- शरीरावच्छिन्नः ।
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