Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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धात्वर्थ निर्णय
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के विशेषण 'भीष्म', 'उदार' आदि शब्दों से, "अनभिहिते " सूत्र के अनुसार द्वितीया विभक्ति नहीं आ सकती है। इन शब्दों से द्वितीया विभक्ति तभी सकती है यदि 'कर्म' 'अनभिहित' हो । अब तो वह अभिहित हो चुका । द्र० - " कट' शब्दाद् उत्पद्यमानया द्वितीयया अभिहितं कर्मेति कृत्वा भीष्मादिभ्योऽपि द्वितीया न प्राप्नोति" (महा० २.३.१, पृ० २५० ) । परन्तु स्थिति यह है कि इन प्रयोगों में विशेष्य तथा विशेषरण दोनों से द्वितीया विभक्ति अभीष्ट है । इसलिये इन प्रयोगों की सुरक्षा के लिये यह आवश्यक है कि उपर्युक्त परिगणन-वार्तिक को स्वीकार किया जाय जिससे केवल तिङ्, कृत्, तद्धित तथा समास द्वारा कथित 'कारक' को ही 'अभिहित' माना जाय । विशेष्य आदि के द्वारा कथित कारकों को 'अभिहित' न माना जाय अतः इस परिगणन के आधार पर विशेष्य 'कट' शब्द शब्द से द्वितीया विभक्त के संयाजन के साथ साथ, 'भीष्म' आदि विशेषरण शब्दों से भी द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हो सकेगी, जैसा कि अभीष्ट है ।
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सूत्र
तत्प्रत्याख्यानं च 'पाकिः' इत्युच्यते - पतंजलि ने कात्यायन के इस परिगणन - प्रस्ताव को यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि सभी कारकों का क्रिया के साथ सम्बन्ध या तो साक्षात् होता है या अपने आश्रय के द्वारा । 'आश्रय के द्वारा' यह कहने की आवश्यकता इसलिये पड़ी कि 'अधिकरण' कारक का क्रिया के साथ साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता अपितु परम्परया, अपने श्राश्रय के द्वारा ही होता है । इस प्रकार सभी 'कारकों' का क्रिया में अन्वय होने के कारण 'कटं करोति भीष्मम्' जैसे वाक्यों में विशेष्य विशेषरण दोनों को कर्म माना जायगा । इसी दृष्टि से पतंजलि ने इसी के भाष्य में दो बार कहा - "कटोऽपि कर्म, भीष्मादयोऽपि । तत्र 'कर्मरिण ० ' इत्येव सिद्धम् " ( महा० २.३.१, पृ० २५२-५३ तथा २५८), अर्थात् 'कट' भी 'कर्म' है तथा उसके विशेषण 'भीष्म' श्रादि भी । जब दोनों ही 'कर्म' हैं तो, 'कट' शब्द में विद्यमान कर्मता, 'कट' शब्द के साथ प्रयुक्त द्वितीया विभक्ति के द्वारा, भले ही कह दी गयी हो, भीष्मत्वादिगुण विशिष्ट कर्मता तो अभी भी 'अनभिहित' ही है । इसलिये उस 'कर्मता' को कहने के लिये 'भीष्म' आदि विशेषरणों से भी द्वितीया विभक्ति आयेगी। इन दोनों विशेष्य तथा विशेषरणों के द्वारा अभिहित 'कर्मत्वों' का विशेष्य विशेषरण रूप से अन्वय द्वितीया विभक्ति के प्रजाने के पश्चात् होता है। इस प्रकार यहाँ विशेष्य- विशेषरणभाव के रूप में अन्वय बाद में होता है । अतः इस ग्रन्वय को 'पाणिक' अथवा कहीं कहीं 'पार्ष्टिक' ( बाद का, पिछे का ) भी कहा जाता है ।
इस तरह 'कटं करोति भीष्मम् उदारं दर्शनीयं शोभनम्' जैसे वाक्यों में 'कटम् तथा 'भीष्मम्' आदि का पहले पृथक् पृथक् करोति' क्रिया के साथ अन्वय करके बाद में दोनों का विक्षेष्य-विशेषण-भाव के रूप एक साथ जिस प्रकार अन्वय किया गया उसी प्रकार का 'पाक' अन्वय ममांसकों ने भी ज्योतिष्टोम याग के सोम क्रयण के प्रकरण में, "अरुणया पिङ्गाक्ष्या एकहायन्या सोमं क्रीणाति" इस वाक्य का अर्थ करने में, किया है । इसी कारण 'अरुणाधिकरण' नामक न्याय प्रसिद्ध होगया ।
यहाँ 'अन्वय-व्यतिरेक' के आधार पर 'अरुणा', 'पिंगाक्षी तथा 'एकहायनी' शब्दों को गुण या जाति का वाचक माना गया । इन शब्दों के साथ संयुक्त तृतीया विभक्ति के द्वारा उनके वाच्यार्थ ‘अरुण' आदि गुणों को हो यहां सोम - क्रयण में 'करण' बताया जा
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