Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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निपातार्थ निर्णय
२०३
'धातुओं' को अनेकार्थक तथा 'उपसर्गों' को अर्थों का द्योतक मानने वाला तो यह कह सकता है कि 'आस' 'धातु' 'उप' उपसर्ग के द्योत्य अर्थ को, उससे सम्बद्ध होने से पूर्व भी, अपने में समाविष्ट किये रहती है इसलिये वह 'सकर्मक' है । अतः उससे 'कर्म' में लकार ग्रा जाता है तथा उसके बाद 'सकर्मक' 'प्रास्' धातु का 'उप' उपसर्ग से सम्बन्ध होता है । इस तरह उस पक्ष में कोई दोष नहीं आता ।
वस्तुतः “पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते पश्चाद् उपसर्गेण " यह नियम बन ही तब पाता है यदि यह मान लिया जाय कि 'उपसर्ग' का अर्थ पहले ही 'धातु' के अर्थ में अन्तर्भूत रहा करता है। यदि इस तथ्य को समझे बिना ही इस उपर्युक्त नियम को मान लिया गया तो ' उपास्यते गुरुः' की कठिनाई का कोई समाधान नहीं दिया जा सकता । इसी बात को स्पष्ट करने के लिये पतंजलि ने कहा - " यस्त्वसौ धातूपसर्गयोरभिसम्बन्धस्तम् अभ्यन्तरं कृत्वा धातुः साधनेन युज्यते " ।
इसलिये यही मानना चाहिये कि 'उपास्यते गुरुः' 'जैसे प्रयोगों में पहले 'उपासना' आदि क्रिया रूप अर्थ की उपस्थिति वक्ता की बुद्धि में हो जाती है, फिर उसे प्रकट करने के लिये वह 'आस्' धातु का प्रयोग करना चाहता है । और क्रिया, साध्य होने के कारण, साधन की प्राकाङक्षा करती है, अतः पहले 'साधन' अर्थ की उपस्थिति और फिर उसके वाचक 'लट्' आदि 'प्रत्ययों' का धातु से सम्बन्ध होता है । इस तरह सबके बाद 'धातु' का सम्बन्ध ' उपसर्ग' से होता है क्योंकि उससे 'प्रस्' धातु के 'उपासना' रूप अर्थ का द्योतन होता है । यदि 'उप' को 'धातु' के साथ न जोड़ा जाय तो केवल 'आस्' धातु के प्रयोग से 'उपासना' आदि अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती क्योंकि सामान्यतया उससे उपासना अर्थ की प्रतिति नहीं होती । इस रूप में, 'धातु' को ही 'उपासना' अर्थ का वाचक मानते हुए 'उपास्यते गुरुः' इत्यादि प्रयोगों में धातु के 'सकर्मकत्व' की सिद्धि हो जाती है । इसी तथ्य को कैयट ने निम्न शब्दों में सुस्पष्ट किया है— पूर्वं साधनाभिधायिप्रत्ययोत्पत्तिः पश्चात् साधन संसृष्ट एव धातुरुपसर्गेण युज्यते । 'अनुभूयते सुखम्', 'उपास्यते गुरुः' इत्यादी धातुरेव सकर्मिकां क्रियां वक्ति उपसर्गस्तु द्योतकः ( महा० प्रदीप २.१.१८ ) ।
[ उपसर्गों की अर्थ- द्योतकता के विषय में भर्तृहरि का कथन ]
हरिणाप्युक्तम् -
धातोः साधनयोगस्य भाविनः प्रक्रमाद् यथा ।
धातुत्वं कर्मभावश्च तथान्यदपि दृश्यताम् ॥ वाप० २.१८६.
बुद्धिस्थाद् अभिसम्बन्धात्तथा धातूपसर्गयोः । अभ्यन्तरीकृतो भेद: पद-काले प्रकाशते ॥ वाप० २.१८८.
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