Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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निपातार्थ-निर्णय
२०५
'धातु' तथा 'उपसर्ग' के (पश्चात्कालिक) संयोग को बुद्धि का विषय बनाकर 'उपसर्ग' के (द्योत्य) अर्थ से उत्पन्न विशिष्ट अर्थ, जो ('उपसर्ग' सम्बन्ध से पूर्व) 'धातु के द्वारा अपने में अन्तर्भूत किया हुआ विद्यमान था, पद के उच्चारण के समय, 'उपर्सग' का ('धातु से) सम्बन्ध होने पर, प्रकट होता है। यहां 'श्रोतुः' (श्रोता को) यह ('प्रकाशते' क्रिया के 'कर्म' के रूप में) शेष है। 'उपसर्ग' के सम्बन्ध से पहले ही, (केवल) धातु के द्वारा ही, 'उपसर्ग के (द्योत्य) अर्थ से विशिष्ट अपना (वाच्य) अर्थ कहा जाता है-यह तात्पर्य है। “पूर्वं धातुरुपसर्गेण युज्यते पश्चात् साधनेन" (धातू' पहले 'उपसर्ग' से युक्त होती है, बाद में 'कारक' से) यह व्यवहार तो इस कारण होता है कि उस ('उपसर्ग') का अर्थ 'धातु के अर्थ में अन्तर्भूत रहता है ।
__ वक्ता की बुद्धि में विवक्षित अर्थ की उपस्थिति पहले हो जाती है उसके बाद वह उस अर्थ को श्रोता पर प्रकट करने के लिए शब्दों का प्रयोग करता है। इस कारण, अर्थ के बौद्धिक अभिससम्बन्ध की प्राथमिक सत्ता को स्वीकार करते हुए, वैयाकरण शब्दप्रयोग के भावी सम्बन्ध के आधार पर, अनेक कार्य करता है। इस तथ्य के प्रतिपादन के लिये नागेश ने भर्तृहरि की दो कारिकायें यहाँ उद्धत की तथा उनका अर्थ भी दिया ।
प्रथम कारिका में शब्द-प्रयोग के भावी-सम्बन्ध के आधार पर होने वाले, व्याकरण की प्रक्रिया के, दो दृष्टान्त दिये गये हैं तथा दूसरी कारिका में 'धातु' तथा 'उपसर्ग' का, अर्थ की दृष्टि से, बौद्धिक अभिसम्बन्ध 'उपसर्ग' के सम्बन्ध से पहले ही हो जाता है यह, बात कही गयी है।
पहला उदाहरण है-'भू' आदि शब्दों की 'धातु' संज्ञा का । 'भूवादयो धातवः' (पा० १.३.१) सूत्र के भाष्य से स्पष्ट है कि वैयाकरणों ने क्रियावाचक 'भू' आदि की 'धातु' संज्ञा मानी है। परन्तु जब तक 'भू' का सम्बन्ध 'कारकों' से नहीं होता तब तक कभी भी इनमें क्रियावाचकता पा ही नहीं सकती क्योंकि 'कारक' या दूसरे शब्दों में 'साधन' ही तो 'क्रिया' को 'क्रिया' बनाते हैं-साधनं हि क्रियां निवर्तयति' (महा० ६.१.१३५) । इसलिए 'कारकों' से सम्बन्ध होने के पहले 'धातुओं' की 'धातु' संज्ञा कैसे हो सकती है ? इस प्रश्न का उत्तर यही दिया जा सकता है कि भविष्य में होने वाले 'कारक'-सम्बन्ध के आधार पहले ही 'धातुओं' की संज्ञा मान ली जाती है, या दूसरे शब्दों में बुद्धि में 'कारकों' का सम्बन्ध पहले ही उपस्थित हो जाता है, इसलिये उस बौद्धिक सम्बन्ध के कारण 'धातु' की धातु' संज्ञा, शाब्दिक रूप से 'कारक' के साथ सम्बन्ध हुए बिना भी, हो जाती है।
दूसरा उदाहरण है- धातुओं का, 'इच्छ धातु' का, 'कर्म' बनना। पाणिनि के "धातोः कर्मणः समाकनकर्तृकाद् इच्छायां वा" (पा० ३.१.७) इस सूत्र में 'इष' (इच्छ) 'धातु' के 'कर्म'-भूत धातु से 'सन्' प्रत्यय' के विधान की बात कही गयी है। धातुएँ 'इष्' धातु का कर्म कब बनेंगी? जब उनसे 'सन्' प्रत्यय लाया जायगा। उससे पहले तो 'धातुएँ' 'इच्छु' का कर्म नहीं बन सकतीं। परन्तु अर्थ की दृष्टि से पहले ही विद्यमान 'इष्' के बौद्धिक सम्बन्ध के आधार पर 'पठ्' आदि 'धातुओं' को इष् 'धातु' का कर्म मान लिया जाता है।
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