Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मजूषा
अवश्यं चैतद् एवं विज्ञेयम्' । यो हि मन्यते पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते, पश्चाद् उपसर्गेण इति तस्य 'आस्यते गुरुरणा' इत्यकर्मकः, 'उपास्यते गुरुः' इति केन' सकर्मकः स्यात्” इति ।
'प्रतिष्ठते' (प्रस्थान करता है ग्रथबा जाता है) यहाँ ( ' गति निवृत्ति' अर्थ वाली) 'स्था' (धातु) ही " धातुओं के प्रनेकार्थक होने के कारण " 'गति' अर्थ का वाचक है । 'प्र' शब्द तो उस ('स्था' धातु) के अर्थ - ' गतिका प्रारम्भ' का द्योतक है। इसीलिये ( ' उपसर्गों' के अर्थ - द्योतक होने के कारण ) " धातुः पूर्वं सावनेन युज्यते पश्चाद् उपसर्गेण " (धातु पहले साधन से युक्त होती है उसके बाद 'उपसर्ग' से) यह सिद्धान्त बनाया गया । 'साधन' ( का अभिप्राय) है 'कारक', ( श्रर्थात् ) उस ( ' कारक') से प्रयुक्त कार्य ('लट्, आदि) । 'उपसर्गेण ' ( इस पद का अभिप्राय है) 'उपसर्ग' संज्ञा वाले ( 'प्र', 'परा' आदि ) शब्द | इस प्रसंग में महाभाष्य में यह कहा गया है कि "पहले धातु 'उपसर्ग' से युक्त होती है बाद में ‘कारक' से । यह कथन सत्य नहीं है । 'धातु' पहले 'साधन' से युक्त होती है बाद में ' उपसर्ग' से क्योंकि 'कारक' (स्व-प्रयुक्त 'लट्' आदि के द्वारा) क्रिया को बनाता है ( उसका 'साध्य' रूप से बोध कराता है)। उस ( 'साध्य' रूप से ज्ञात क्रिया) को ' उपसर्ग' (अपने द्योत्य अर्थ के द्वारा) विशेष अर्थ से युक्त करता है । (अभिनिष्पन्न अर्थ की विशेषता को ही उपसर्ग के द्वारा कहा जा सकता है) । इसी रूप में यह (बात) सत्य है । परन्तु वह जो 'धातु' तथा 'उपसर्ग' का बाद में होने वाला अभिसम्बन्ध है उसको अपने अन्दर समाविष्ट कर के ( उस अर्थ को प्रकट करते हुए ) 'धातु' 'कारकों' से युक्त होती है। इस बात को इसी रूप में अवश्य मानना चाहिये क्योंकि जो यह मानता है कि पहले 'धातु ' ( ' उपसर्ग' के सम्बन्ध से द्योत्य अर्थ को अपने अन्दर समाविष्ट किये बिना ही ) 'साधन' ('कारक') से युक्त होती है बाद में 'उपसर्ग' से ( धातु का सम्बन्ध होता है और तब ' उपसर्ग' विशिष्ट अर्थ की प्रतीति होती है), उसके मत में 'आस्ते गुरुणा' (गुरु बैठता है) यह 'अकर्मक' प्रयोग 'उपास्यते गुरुः' ( गुरु की उपासना या पूजा की जाती है) इस रूप में 'सकर्मक' कैसे होगा" ?
ऊपर कहा जा चुका है कि नैयायिक 'निपातों' को, उनसे प्रकट होने वाले, प्रथ का वाचक मानते हैं तथा 'उपसर्गों' को द्योतक । परन्तु वैयाकररण, विशेषतः नवीन वैयाकरण, दोनों को समान रूप से अर्थ का द्योतक मानते हैं । जहाँ तक 'उपसर्गों की अर्थ- द्योतकता की बात है ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत प्राचीन काल से यह विवाद चलता आ रहा है कि 'उपसर्ग' अर्थ के वाचक हैं या द्योतक । यास्क के निरुक्त (१1३)
में इस विषय में दो रोचक मतों की चर्चा मिलती है । वैयाकरणों में प्रतिष्ठित प्राचार्य
ह० में 'अवश्यं चैतद् एवं विज्ञेयम्' यह अंश भी अनुपलब्ध है ।
ह० तथा वंमि० में " पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते पश्चाद् ' उपसर्गेण ' इति" यह अंश अनुपलब्ध है । ह० में अनुपलब्ध है ।
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