Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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निपातार्थ-निर्णय
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नसमासे .. उत्तर-पदार्थ-प्राधान्यम् :- 'निपातों' के सार्थक मानने के कारण ही नञ्समास में 'न' निपात से द्योत्य अर्थ के विशेषण (अप्रधान) होने से उत्तरपद के अर्थ की विशेष्यता (प्रधानता) मानी जाती है। यदि पूर्वपद के रूप में विद्यमान 'न' का कोई अर्थ ही न हो, उसे सर्वथा अनर्थक माना जाय, तो किस पद की अपेक्षा उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता स्वीकार की जायगी ? जैसे-'अब्राह्मणः' का अर्थ है जो वस्तुतः ब्राह्मण तो नहीं है पर ब्राह्मण के सदृश है, उसमें किसी गुण आदि के कारण ब्राह्मणत्व आरोपित है। यहाँ 'सादृश्य' या 'आरोपितत्व' अर्थ 'न' निपात का, जो समास का पूर्व पद है, द्योत्य अर्थ है। 'न' का यह अर्थ समास के उत्तरपद 'ब्राह्मणः' के अर्थ का विशेषण है। इसलिये उत्तरपद ('ब्राह्मणः') का अर्थ प्रधान हुआ।
द्र०–नसमासे चापरस्य द्योत्यम् प्रत्येव मुख्यता।
द्योत्यमेवार्थमादाय जायन्ते नामतः सुपः ।। (वभूसा० पृ० ३८५)
["उपसर्ग अर्थों के द्योतक हैं" इस सिद्धान्त का प्रतिपादन]
'प्रतिष्ठते' इत्यत्र 'तिष्ठतिः' एव गति-वाची धातूनाम् अनेकार्थत्वात्। 'प्र'-शब्दस्तु तदर्थ-गत्यादित्वस्य द्योतकः । अतएव “धातुः पूर्वं साधनेन युज्यते पश्चाद् उपसर्गेरण" इति सिद्धान्तितम् । ('साधनेन'-) साधनं कारकम्तत्प्रयुक्त-कार्येण । 'उपसर्गेण'-उपसर्ग-संज्ञक-शब्देन' । तत्र हि भाष्ये (६. १. १३५)-- “पूर्व धातुरुपसर्गेण युज्यते पश्चात् साधनेन' इति' । नैतत् सारम् । 'पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते पश्चाद् उपसर्गेण' साधनं हि क्रियां निवर्तयति । ताम् उपसर्गो विशिनष्टि । (अभिनिवृत्तस्य चार्थस्य उपसर्गेण विशेषः शक्यो वक्तुम्') । सत्यम् एवम् एतत् । यस्त्वसौ धातूपसर्गयोर्
अभिसम्बन्धस्तम् अभ्यन्तरं कृत्वा धातुः साधनेन युज्यते । १. ह० में यहाँ क्रम-विपर्यय है-'तिष्ठतिरेव धातूनाम् अनेकार्थत्वाद् गतिवाची'।
२.
वंमि०- गत्यादिमत्वस्य ।
ह० में इसके बाद 'इत्यार्थः' इतना अधिक है। ४. ह० तथा वंमि० में इसके बाद 'इतर आह' इतना अधिक है । ५. यह कोष्ठकान्तर्गत पाठ पलम० में छूटा हुआ है परन्तु महा० में उपलब्ध है। ६. वंमि०–एव। ७. ह. में 'सत्यम् एवम् एतत्' यह अंश अनुपलब्ध है ।
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