Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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निपातार्थ निर्णय
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कारण यह है कि 'घट', 'पश्य' क्रिया का, 'कर्म' कारक है । कारक में क्रिया से अन्वित होने का धर्म तो होना ही चाहिये - उसके बिना तो कारक को कारक ही नहीं माना जा सकता। इसलिये, क्रिया में 'कर्म' कारक के रूप में अन्वित होने के कारण, 'घट' के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग ही न्याय्य है ।
समुच्चयस्य प्रतियोग्याकांक्षायां... घटस्य प्रतियोगित्वम् — यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि 'घट सहित पट को देखो' इस प्रकार के बोध में सहित ( समुच्चय) का प्रतियोगी (विशेषण) कौन है, अर्थात् किसका समुच्चय है, इस प्रकार की जिज्ञासा के उपस्थित होने पर स्वभावतः 'घट' को ही समुच्चय का प्रतियोगी माना जायगा क्योंकि वह 'च' के समीप पूर्व में प्रयुक्त है । परन्तु प्रतियोगी होने पर भी 'घट' शब्द से षष्ठी विभक्ति नहीं या सकती क्योंकि वहाँ पहले ही, पश्य' क्रिया से अन्वित होने के कारण, द्वितीया विभक्तिग्रा चुकी है। इसलिये प्रत्ययान्त होने के कारण, “प्रर्थवद् अधातुर्
प्रत्ययः प्रातिपदिकम् ” ( पा० १.२.४५) सूत्र में विद्यमान 'प्रप्रत्ययः' निषेध से, 'घटम्' की 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं होगी और 'प्रातिपदिक' संज्ञा के प्रभाव में षष्ठी विभक्ति नहीं आ सकती ।
पटे तु समुच्चयस्य "क्व षष्ठ्यपादनम् - जहाँ तक 'पट' शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति के आने की बात है वह भी नहीं बनती क्योंकि 'पट' में तो 'समुच्चय' का भेदसम्बन्ध (अनुयोगिता - निरूपक), या दूसरे शब्दों में विशेष्यतावच्छेदक सम्बन्ध, से अन्वय होता है | परन्तु 'समुच्चय' में 'पट' का भेद - सम्बन्ध से ग्रन्वय नहीं होता । सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यहाँ 'पट ' विशेष्य तथा 'समुच्चय' विशेषण है । इसलिए 'विशेष्यता- निरूपक' सम्बन्ध से 'पट' में तो 'समुच्चय' का अन्वय होता है परन्तु 'समुच्चय' में 'पट' का इसी सम्बन्ध से ग्रन्वय नहीं होता क्योंकि 'पट', 'समुच्चय' का, विशेषण नहीं है । इस प्रकार, विशेषरण न होकर, विशेष्य होने के कारण 'पट' शब्द के साथ भी षष्ठी विभक्ति नहीं आ सकती, अपितु 'पश्य' क्रिया से अन्वित होने के कारण द्वितीया विभक्ति ही वहाँ भी प्रयुक्त होगी क्योंकि “विशेषरण वाचक शब्दों से षष्ठी विभक्ति होती है, विशेष्य-वाचक शब्दों से नहीं" यह सभी मानते हैं । इस तरह उपर्युक्त प्रयोग में किसी भी शब्द में षष्ठी विभक्ति नहीं उपस्थित होगी ।
प्रतियोगी तथा श्रनुयोगी - 'प्रतियोगी' तथा 'ग्रनुयोगी' ये दोनों शब्द न्याय दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली के बड़े व्यापक शब्दों में से है । इन्हें हिन्दी भाषा के किसी एक शब्द द्वारा स्पष्ट करना कठिन है । परन्तु इस प्रसंग में इनके लिये क्रमशः विशेषरण तथा विशेष्य शब्द से कार्य चलाया जा सकता है । इनके उदाहरण के रूप में 'राज्ञः पुरुष:' को प्रस्तुत किया जा सकता है । यहाँ 'राजा' 'पुरुष' का 'प्रतियोगी' तथा 'पुरुष' 'राजा' का 'अनुयोगी' है ।
नामार्थयोरभेदान्वयव्युत्पत्तिस्तु
निपातातिरिक्त विषया - एक परिभाषा है अर्थात् समान विभक्ति वाले दो प्राति
।
"समान - विभक्तिक-नामार्थयोर् प्रभेदान्वयः " पदिकार्थों में प्रभेदसम्बन्ध से अन्वय होता है अतः इस नियम के होते हुए दो प्रातिपदिकार्थी, 'घट' तथा 'समुच्चय' में भेदसम्बन्ध ( 'घट' को विशेषण तथा 'समुच्चय' को विशेष्य) एवं 'पट' तथा 'समुच्चय' में भेदसम्बन्ध, ('पट' को विशेष्य तथा
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