Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
कौण्डभट्ट ने वैयाकरणभूषणसार में, निपातों को अर्थ का वाचक मानने वाले, नैयायिकों पर जो उपर्युक्त आक्षेप किये हैं वे नागेशभट्ट की दृष्टि में बहुत युक्तियुक्त नहीं हैं । इसलिये उनका निराकरण करते हुए नागेश ने उन्हें यहाँ अनुचित ठहराया है।
शब्द-शक्ति-स्वभावेन 'अप्रसंगात्-कौण्डभटट्ट ने नैयायिकों के मत में जितने भी दोष दिखाये हैं वे इस मान्यता पर निर्भर हैं कि 'निपातों' के अर्थों का विशेषण के साथ सम्बन्ध होता है। परन्तु नागेश के अनुसार उनकी यह मान्यता ही ठीक नहीं है क्योंकि शब्दों का अपना अपना अलग अलग स्वभाव होता है तथा अपने स्वभाव के अनुकूल ही उनसे अर्थ की भिन्न भिन्न रूप में प्रतीति होती है। इसके लिये शब्द-स्वभाव के अतिरिक्त कोई अन्य कारण नहीं प्रस्तुत किया जा सकता । उदाहरण के लिये - एक ही 'पचन' क्रिया 'पाक' शब्द के द्वारा 'सिद्ध' या निष्पन्न रूप में कही जाती है परन्तु 'पचति' शब्द के द्वारा वही 'साध्य' या अनिष्पन्न रूप में प्रकट की जाती है। इसी प्रकार 'निपात' शब्द भी स्वभावतः ऐसे हैं कि वे सदा ही दूसरे शब्दार्थ के विशेषण के रूप में ही सुसंगत हो पाते हैं -विशेष्य के रूप में नहीं। इस प्रकार-केवल विशेषण के रूप में ही उपस्थित होने के कारण ---निपातों का किसी दूसरे विशेषण के साथ अन्वित होने की बात ही नहीं उठती।
'च'-शब्द-धोत्य .. षष्ठ्यप्राप्तेश्च-एक दूसरी बात यह भी है कि 'च' निपात का द्योत्य अर्थ 'समुच्चय' है और यह अर्थ 'असत्त्वभूत' है, अर्थात् द्रव्य नहीं है (द्र०-"चादयोऽसत्त्वे" पा० १.४.५७)। इस कारण उस असत्त्वभूत अर्थ की दृष्टि से 'घट' शब्द में षष्ठी विभक्ति नहीं आ सकती। परन्तु स्वयं नागेशभट्ट की यह युक्ति भी कुछ ठोस नहीं प्रतीत होती क्योंकि 'घटस्य घटत्वम्' इत्यादि प्रयोगों में भी 'घटत्वम् का अर्थ असत्त्वभूत ही है। परन्तु यहाँ 'घट' शब्द' के साथ षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त होती ही है।
किच घटं पटं च .... द्वितीया-- 'घटं पटं च पश्य' इत्यादि में षष्टी विभक्ति की प्राप्ति का जो तीसरा दोष है उसमें भी, नागेश के अनुसार, कोई सार नहीं है क्योंकि इस प्रयोग में 'घट' पद का अर्थ केवल घट नहीं है अपितु उसका अर्थ है 'घट के समुच्चय से युक्त' । 'घट' शब्द के इस विशिष्ट तात्पर्य को इस शब्द की अप्रसिद्धा शक्ति, अथवा दूसरे शब्दों में लक्षणा वृत्ति, से प्रकट मानना चाहिये। ऊपर लक्षणा के प्रकरण में, लक्षणा वृत्ति का खण्डन' करते हुए, नागेश उसे अप्रसिद्धा शक्ति के रूप में स्वीकार कर आये हैं। उसी दृष्टि से यहाँ अप्रसिद्धा शक्ति अथवा 'लक्षणा' वृत्ति की बात कही गयी।
__इस प्रकार 'घट के समुच्चय से युक्त' इतना अर्थ 'घट' पद का है। इस प्रयोग का 'च' निपात, 'घट' शब्द के, इस विशिष्ट तात्पर्य का द्योतक मात्र है। इस कारण इस अर्थ की दृष्टि से यहाँ 'घट' तथा 'पट' दोनों ही पट अर्थ को कह रहे हैं—दोनों का अधिकरण एक (पट) ही है । इस रूप में समान-अधिकरणता से युक्त इन दोनों 'घट' तथा 'पट' पदों का 'पश्य' क्रिया में अन्वय होता है। अतः इस वाक्य का अर्थ है-'घट के समुच्चय से युक्त पट को देखो।' इस रूप में 'घट' तथा 'पट' दोनों पदों का 'पश्य' क्रिया में अन्वय होने के कारण दोनों के साथ ही द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होगी । इसका
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