Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा
जा रहा है । यद्यपि स्वयं ये गुण सोम खरीदने की क्रिया में समर्थ नहीं हैं परन्तु इन गुणों की आश्रयभूता गोवत्सा (बछिया) तो 'करण' बन ही सकती है।
__ इस रूप में पहले इन 'अरुण', 'पिंगाक्षी' तथा 'एकहायनी' गुणों का 'क्रयण' क्रिया में अन्वय होता है। उसके बाद, ये गुण स्वयं 'क्रयण' क्रिया में 'करण' बन नहीं सकते इसलिये, इन गुणों के आश्रयभूत द्रव्य की आकांक्षा होती है। उस स्थिति में, प्रकरण की अपेक्षा “गवा ते सोमं क्रीणनि" इस मंत्र-वाक्य के अधिक बलवान होने के कारण, इन तीनों शब्दों के वाच्यार्थभूत गोद्रव्य में ही, समानाधिकरणता के आधार पर, इन तीनों शब्दों का अन्वय किया जाता है।
अभिप्राय यह है कि पहले 'अरुणया', 'पिंगाक्ष्या' तथा 'एकहायन्या' इन तीनों तृतीया-विभक्त्यन्त पदों का स्वतंत्र रूप से 'क्रयण' क्रिया में अन्वय होता है फिर बाद में, 'अरुण गुण से विशिष्ट जो गोवत्सा वही पीली आँखों से युक्त है तथा वही एक वर्ष वाली है इस तरह, तीनों का 'गोवत्सा' के साथ अभेद सम्बन्ध से अन्वय होता है।
तस्माद् द्वितीया... दुर्वारा-इस प्रकार 'पश्य मृगो धावति' इस वाक्य में 'पश्य' के 'कर्म' 'मृगो धावति' इस इस अंश में दोनों को अलग-अलग 'कर्म' मानना होगा । 'घावति' पद 'प्रातिपादिक' संज्ञक नहीं है तथा 'पश्य' क्रिया की दृष्टि से वह निराकांक्ष भी है क्योंकि नैयायिक की दृष्टि में वह 'मृग' का विशेषण है--विशेष्य स्वयं 'मृग' है। इसलिये, 'धावति' के साथ तो द्वितीया विभक्ति नहीं आ सकती। परन्तु 'मृग' पद के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करना ही होगा। इसका कारण यह है कि 'मृग' पद 'प्रातिपदिक' भी है तथा विशेष्य होने के कारण साकांक्ष भी है। इसलिये 'मृग' शब्द के साथ द्वितीया विभक्ति का संयोजन नैयायिक के मत उसी प्रकार अनिवार्य होगा जिस प्रकार 'राज्ञः पुरुषम् आनय' इस वाक्य में 'आनयन' क्रिया के 'कर्म' एवं विशेष्य 'पुरुष' शब्द के साथ द्वितीया विभक्ति संयुक्त होती है। अतः नैयायिकों के मत में इस दोष की निराकरण बहुत कठिन है।
वैयाकरणों के उपर्युक्त मत में यह दोष नहीं उपस्थित होता क्योंकि वहाँ तो 'मृग' शब्द ही 'धावन' क्रिया का विशेषण है और विशेष्य अथवा प्रधान है 'धावन' क्रिया । इस प्रधान भूत कर्म 'धवति' के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग इसलिये नहीं होगा कि 'धावति' पद 'प्रातिपदिक' नहीं है।
इस लिये इस दोष के कारण नैयायिकों का यह सिद्धान्त भी दूषित होगया कि "शाब्द-बोध में प्रथमान्त शब्दों का अर्थ प्रधान होता है"।
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