Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण - सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा
प्रखवाली, एक वर्ष की बछिया से सोम खरीदता है) यहां खरीदने की क्रिया में, मीमांसकों ने अपनाया है ।
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इसलिये 'धावति मृगः' यहां दोनों की ( पृथक् पृथक् ) 'कर्म संज्ञा होने पर, 'धावति' (इस पद) के 'प्रातिपदिक' न होने तथा ( नैयायिकों के अनुसार) विशेषरण होने और अन्यत्र ('दर्शन' क्रिया के प्रति) निराकांक्ष होने के कारण 'धावति' में द्वितीया विभक्ति के न होने पर भी, 'मृग' शब्द से द्वितीया विभक्ति का निवारण सर्वथा दुष्कर ही है ।
वैयाकरणों के मत में तो 'धावन' क्रिया का विशेषण होने तथा दूसरे ('दर्शन' क्रिया रूप ) अर्थ के प्रति निराकांक्ष होने के कारण 'मृग' शब्द से द्वितीया विभक्ति नहीं होगी । परन्तु नैयायिकों के मत में प्रधान अर्थ का वाचक होने के कारण 'मृग' शब्द से, 'राज्ञः पुरुषम् ग्रनय' इस वाक्य के 'पुरुष' शब्द के समान, ( प्राप्त होने वाली ) द्वितीया विभक्ति का निवारण करना कठिन ही है । इससे अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है ।
ननु विशिष्टार्थवाचकस्य
द्वितीयेति चेत्- नैयायिकों के अनुसार 'विशिष्ट अर्थ' का अभिप्राय है " उत्तर देश से संयोगरूप 'फल' के अनुकूल जो धावनरूप 'व्यापार' उसके अनुकूल जो 'यत्न' उसका श्राश्रय मृग" । नैयायिकों की दृष्टि से, पूर्वपक्ष के रूप में, यहाँ यह कहा गया कि 'पश्य मृगो धावति' में 'मृगो घावति' इन दोनों शब्दों के समूहात्मकरूप की एक साथ 'कर्म' संज्ञा है, न कि पृथक् पृथक् । अतः 'मृग' को अलग करके उसकी 'कर्मसंज्ञा ही नहीं है । इस रूप में दोनों 'मृगो धावति' शब्दों की एक साथ 'प्रातिपदिक' संज्ञा नहीं हो सकती तथा जिसकी 'प्रातिपदिक' संज्ञा है उस अकेले 'मृग' शब्द की 'कर्म' संज्ञा नहीं है । अतः नैयायिकों के मत में भी 'मृग' के साथ द्वितीया विभक्ति की प्राप्ति का दोष नहीं उपस्थित होता ।
परन्तु इस पूर्वपक्ष के खण्डन के लिये नागेश ने महाभाष्य तथा मीमांसा से दो ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किये हैं जो इस बात को स्पष्ट कर देते हैं 'मृग' तथा 'धावति' की अलग अलग ही 'कर्म' संज्ञा होनी चाहिये ।
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न "अनभिहिते" द्वितीयापत्तेः - यहाँ पहला प्रमाण महाभाष्य से है । " अनभिहिते " इस अधिकार-सूत्र के विषय में कात्यायन ने यह कहा कि किस किस से 'अभिहित' या कथित होने पर 'कारकों' को 'अभिहित' माना जायगा इसका परिगणन कर देना चाहिये | अपने इस परिगणन में कात्यायन ने – 'तिङ', 'कृत्', 'तद्धित' तथा 'समास' को प्रस्तुत किया — "तिङकृत्तद्धितसमासः परिसंख्यानम् " ( २.३.१, पृ० २५६ ) । इस परिसंख्या का अभिप्राय यह है कि यदि इनसे 'कारकों' का कथन हुआ हो तब ' कारकों' को 'अभिहित' माना जायगा। इन से अतिरिक्त किसी अन्य के द्वारा यदि 'कारक' कथित होंगे तो भी उन्हें 'अनभिहित' ही माना जायगा । इस परिसंख्यान का प्रस्ताव इसलिये रखा गया कि 'कटं करोति भीष्मम् उदारं शोभनम्' जैसे वाक्यों में विशेष्यभूत, 'कट' शब्द के साथ प्रयुक्त द्वितीया विभक्ति के द्वारा 'कर्म' कारक के कथित हो जाने पर 'कट'
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