Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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धात्वर्थ-निर्णय
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करना उचित नहीं है क्योंकि ('तिङ' के द्वारा तो संख्या के कथन की बात मानी गयी है पर) 'कृत्', 'तद्धित' तथा 'समास' के द्वारा संख्या का कहा जाना अप्रसिद्ध है।
इसके अतिरिक्त 'व्यापार'-सामान्य अर्थात् 'यत्न' (अर्थ) भी धातु से ही प्राप्त हो जाता है क्योंकि "स्थाली (पतीली) में होने वाले 'यत्न' को 'पच्" धातु के द्वारा कहे जाने पर 'स्थाली पचति' (पतीली पकाती है)" यह "कारके" इस 'अधिकार' सूत्र के भाष्य में कहा गया है। (इस प्रकार) “दूसरे शब्द से वाच्यार्थ के रूप में उक्त न होने वाला (अर्थ) ही किसी शब्द का अर्थ बनता है" इस न्याय के अनुसार 'कृति' में 'पाख्यात' की शक्ति (अभिधा) है (यह) कथन सम्भव ही नहीं है । इस विषय में इतना ही (विचार) पर्याप्त है।
किच कृतिवाच्यत्वे गौरवापत्तिः- लकारों का अर्थ केवल 'कृति' मानने, कर्ता न मानने, से 'तिङ्' विभक्तियों की दृष्टि से भी अनेक दोष उपस्थित होते हैं । पहला दोष यह है कि 'रथो गच्छति' इत्यादि प्रयोगों में, रथ के अचेतन होने तथा उसमें चेतन के धर्म 'कृति' अर्थात् 'यत्न' के न होने के कारण, 'पाख्यात' की 'व्यापार' अथवा 'पाश्रयता' में रूढ़ि लक्षणा माननी पड़ेगी। इस बात को, नैयायिकों के मत की प्रस्थापना करते हुए, ऊपर दिखाया जा चुका है । यह लक्षणा का प्राश्रय लेना एक प्रकार का अनावश्यक गौरव (विस्तार) है।
अभिहितत्वानभिहितत्वव्यवस्थोच्छेदापत्तिश्च -- दूसरा दोष यह है कि, 'लकारों के द्वारा सदा ही केवल 'कृति' के कहे जाने तथा इस कारण 'कारक' के अकथित रहने से, 'अभिहित' तथा 'अनभिहित' की व्यवस्था विशृङ्खल हो जायगी। प्राचार्य पाणिनि ने "अनभिहिते" सूत्र के अधिकार में "कर्मणि द्वितीया' (पा० २.३.२)-- तिङ्' आदि प्रत्ययों से 'अनभिहित कर्म' में द्वितीया विभक्ति होती है- तथा “कर्तृ करणयोस्तृतीया" (पा० २.३.१८)-'अकथित 'कर्ता' और 'करण' कारकों में तृतीया विभक्ति होती हैइत्यादि सूत्रों के द्वारा 'अनभिहित' की व्यवस्था की है। परन्तु नैयायिकों की उपयुक्त मान्यता के अनुसार 'कर्ता', 'कर्म', 'करण' प्रादि कभी भी तिङ' से कथित नहीं होंगे क्योंकि उनके 'स्थानी' ('लकार') का अर्थ नैयायिक केवल 'कृति' मानता है 'कारक' नहीं। इस प्रकार ये कारक सदा ही 'अकथित' रहेंगे और जब सदा ही 'अकथित' रहेंगे तो 'अनभिहित' विषयक नियम बन ही नहीं सकता। उदाहरण के लिये 'चैत्र: पचति' (चैत्र पकाता है) इत्यादि में 'चैत्र' पद से सदा ही तृतीया विभक्ति आयेगी, प्रथमा नहीं। इसका कारण यह है कि 'कर्ता' सदा 'पाख्यात' द्वारा 'अकथित' ही रहेगा क्योंकि 'पाख्यात' तो केवल 'कृति' को कहेगा। इसी प्रकार 'चैत्रेण तण्डुलः पच्यते' (चैत्र के द्वारा तण्डुल पकाये जाते हैं) इत्यादि कर्मवाच्य के प्रयागों में 'कर्म' ('तण्डुल' आदि) में प्रथमा विभक्ति के स्थान पर "कर्मणि द्वितीया" के अनुसार, सदा ही द्वितीया विभक्ति की प्राप्ति होगी क्योंकि यहाँ नैयायिकों के अनुसार 'कर्म' 'अकथित' है ।
न च 'अभिहितसंख्याके' इत्यर्थवर्णनम्-यहाँ नैयायिक की दृष्टि से 'अनभिहित' की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के, लिये पूर्वपक्ष के रूप में, यह उपाय प्रस्तुत किया गया कि पाणिनि के “द येकयोद्विवचनैकवचने" (पा० १.४.२२) तथा “बहुषु बहुवचनम्"
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