Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
इसीलिये 'नीलो घट:' (नीला घड़ा ) इत्यादि प्रयोगों में, 'आकांक्षा' के कारण ही, 'नीला' तथा 'घड़ा' इत्यादि में परस्पर अभिन्नता की प्रतीति होती है ।
एवं 'पचति भवति' इत्यत्र सूत्रस्यभाष्यात् - यदि यह कहा जाय कि 'धावति' यह क्रियापद 'पश्य' इस एक अन्य क्रियापद का 'कर्म' कैसे बन सकता है ? तो
वह उचित नहीं है । क्रियायें भी अन्य क्रियाओं के 'कर्ता', 'कर्म' आदि हो सकती हैं। इस बात को प्रमाणित करने के लिये नागेश ने "भूवादयो धातवः " सूत्र के भाष्य से पतंजलि की एक पंक्ति तथा भर्तृहरि के वाक्यपदीय से एक कारिका यहां उद्धृत की है ।
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[ नैयायिकों के सिद्धान्त में दोष ]
'भवति पचति' जैसे प्रयोगों का, पतंजलि की दृष्टि में, यह अर्थ है कि " वर्तमान कालिक जो पाक क्रिया वह है 'कर्ता' अथवा प्राश्रय जिसका ऐसी भवन-क्रिया" अर्थात् 'पचन क्रिया-सम्बद्ध सत्ता' । यहां पतंजलि ने 'पचन' क्रिया को 'भवन' क्रिया का 'कर्ता' माना है । द्र० - " का एषा वाचो युक्तिः 'भवति पचति', 'भवति पक्ष्यति', 'भवति अपाक्षीत् ' ? एषैषा वाचो युक्तिः - पच्यादयः क्रियाः भवति क्रियायाः कत्र्र्यो भवन्ति " ( महा० ३.३. १ पृ० १६७ ) ।
"सुबन्तं हि यथानेक विशेषरणम्" - यह कारिका वाक्यपदीय द्वितीय काण्ड में मिलती है । परन्तु वहां इसका प्रथम चरण है - " यथानेकमपि क्त्वान्तम्" । वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका में इसी पाठ की व्याख्या भी मिलती है तथा प्रक्रियाकौमुदी के प्रसाद टीका ( पृ० ७१ ) में भी इसी रूप में यह उद्धत है । प्रस्तुत प्रसङ्ग में कारिका का उत्तरार्ध ही द्रष्टव्य है जिस में यह कहा गया है कि 'तिङन्त' अर्थात् क्रिया पद को भी दूसरे क्रियापद का विशेषण माना गया है । जैसे - 'पूर्वं स्नाति, पचति, ततो व्रजति' ( पहले नहाता है, फिर पकाता है, उसके बाद जाता है)। यहां एक 'व्रजति' क्रिया की ही प्रधानता है अन्य क्रियायें उसके विशेषरण के रूप में ही प्रयुक्त हुई हैं। इसी प्रकार 'पश्य मृगो धावति' इस वाक्य में 'मृगो घावति' अंश 'पश्य' का विशेषरण है या दूसरे शब्दों में उसका 'कर्म' है । इस रूप में व्याकरण के सिद्धान्त के अनुसार शाब्दबोध में कोई दोष नहीं आता है । परन्तु वैयाकरणों की इस मान्यता के साथ, जिसके अनुसार वाक्य में क्रिया की प्रधानता होती है, नैयायिकों के इस सिद्धान्त का, कि शाब्दबोध में प्रथमान्त पद की प्रधानता रहा करती है, स्पष्टतः विरोध है क्योंकि नैयायिकों के इस सिद्धान्त के अनुसार तो क्रिया कभी भी प्रधान हो ही नहीं सकती ।
ताकिकमते- 'अन्य देश-संयोगानुकूल धावनानुकूलकृतिमन्मृगकर्मकं प्रेरणाविषयीभूतं यद् दर्शनं तदनुकूलकृतिमांस्त्वम्' इति बोधः । तत्र विशेष्यभूतार्थं वाचकमृगशब्दस्य प्रातिपदिकत्वात् दृशिक्रिया-कर्मत्वाच्च द्वितीयापत्ती, 'धावन्तं मृगं पश्य' इतिवत् पश्य मृगं
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