Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा
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व्याकरण के अनुसार 'कर्म' संज्ञा है और उससे अन्वित अर्थ का वाचक होने के काररण 'पत्' धातु की ' सकर्मकता, उपर्युक्त परिभाषा - "शब्द- शास्त्रीय-कर्म-संज्ञाकार्थान्वय्यर्थकत्वं सकर्मकत्वम्" - के अनुसार, सिद्ध है। इस धातु को 'सकर्मक' मानते हुए ही पाणिनि का "द्वितीया श्रितातीत ० ( पा० २.१.२४ ) सूत्र, जो 'पतित' शब्द के साथ 'द्वितीयातत्पुरुष' समास का विधान करता है, सुसंगत हो पाता है । द्र० - " प्रन्ये तु भूम्यादेः कर्मत्व-विवक्षायां 'भूमिं पतितः' इति प्रयोग इष्ट एव । अतएव 'द्वितीया श्रित०' इत्यादिसूत्रेण 'नरकं पतितः' इत्यादि स्थले द्वितीयासमास - विधानम् अप्युपपद्यते " (व्युत्पत्तिवादः, द्वितीय कारक - प्रथम खण्डे पतति कर्म विचारः) ।
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दूसरा मत यह है कि 'पत्' धातु का अर्थ केवल 'विभाग से उत्पन्न संयोग' ही है— विभाग- जन्य संयोग के अनुकूल होने वाला 'व्यापार' नहीं। इस मत में 'पत्' धातु को 'अकर्मक' माना जाता है । यहां संयोग को ही व्यापार मान लिया गया । वृक्ष से विभक्त हुए बिना भी, श्री प्रादि के कारण, शाखा के झुकने से, भूमि के साथ पत्ते का संयोग हो सकता है । परन्तु इस स्थिति में 'पत्' धातु का प्रयोग नहीं होता । इस कारण विभाग- जन्य संयोग को ही 'पत्' धातु का अर्थ माना गया ।
['कृ' धातु का अर्थ ]
कृञ
इस प्रकार, विभाग- जन्य संयोग को ही 'पत्' धातु का अर्थ मानने पर, घात्वर्थ में 'फल' अंश के न होने के कारण उसका प्राश्रयभूत 'कर्म' भी नहीं होगा । इसलिये 'कर्म' से अन्वित न होने वाले अर्थ का वाचक होने के कारण, " तदनन्वय्यर्थकत्वम् अकर्मकत्वम्" इस परिभाषा के अनुसार, 'पत्' धातु को 'अकर्मक' मानना होगा ।
उत्पत्तिव्यधिकरणस्तदनुकूलो
व्यापारोऽर्थः । 'फलमात्रार्थकत्वे ग्रकर्मकत्वापत्तिर्यतिवत् । किंच कर्मस्थभावकत्वाभावात् कर्मकर्तरि यगाद्यनापत्तिः । 'कृतिः' इत्यादौ धातूनाम् अनेकार्थत्वात् यत्नमात्रे वृत्तिः । यद् वा 'यत्न' - ' कृति ' शब्दयोरपि व्यापारसामान्यवाचिता एव । अतएव " स्थालीस्थे यत्ने पचिना कथ्यमाने 'स्थाली पचति" इति " कारके" ( पा० १.४.२३) इति सूत्रे भाष्ये
उक्तम् ।
'कृञ्' (धातु) का "उत्पत्ति से भिन्न अधिकरण वाला, उत्पत्ति (रूप 'फल') के अनुकूल, व्यापार" अर्थ है । इसका 'फल' - मात्र ( केवल यत्न) अर्थ मानने पर 'यत्' (धातु) के समान ( इस 'कृ' धातु को भी) 'अकर्मक' मानना पड़ेगा तथा (इस रूप में इसके ) 'कर्मस्थभावक' न होने के कारण, कर्मकर्त्ता में 'य' आदि प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होगी । ' कृतिः' (यत्न) इत्यादि (प्रयोगों) में, धातुओं की अनेकार्थकता के कारण, केवल 'यत्न' अर्थ में ('कृ' धातु की)
१. ह० यत्न ।
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