Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा 'आवरणभङ्ग' या विषयता' को 'ज्ञा' धातु का 'फल' न मानकर, 'घट' आदि 'कर्म' हैं विषय जिसके ऐसे, ज्ञान को ही 'फल' मानना चाहिये ।
'कत स्थभावक' तथा 'कर्मस्थभावक'--'कर्मस्थभावक' तथा 'कर्मस्थक्रियक' शब्दों को तथा 'कर्तृ स्थभावक' तथा 'कर्तृ स्थक्रियक' शब्दों को नागेश ने यहाँ पर्याय के रूप में ग्रहण किया है । 'भाव' और 'क्रिया' हैं भी लगभग पर्यायवाचक शब्द। इसी लिये पाणिनि के सूत्र “यस्य च भावेन भावलक्षणम्” (पा० २.३.३७) में 'भाव' पद से क्रिया का ग्रहण भी अभिप्रेत है तथा “लक्षणहेत्वोः क्रियायाः" (पा० ३.२.१२६) में "क्रिया' पद से भाव का ग्रहण भी अभिप्रेत है। भर्तृहरि की कारिका के "विशेष दर्शनं यत्र क्रिया तत्र व्यवस्थिता" इस अंश की व्याख्या में हेलाराज ने भी यही प्रतिपादन किया है कि भर्तृहरि की दृष्टि में यहां 'क्रिया' तथा 'भाव' दोनों अभिन्न अर्थ के वाचक है । द्र०"विशेषमनपेक्ष्य सूत्रकाराभिप्रायेण क्रियाऽपि भावोऽभिधीयते इति टीकाकारस्य (भर्तृ हरेः) अभिप्रायः । तथा च 'लक्षणहेत्वोः क्रियायाः', 'यस्य च भावेन भावलक्षणम्' इत्यादावभेद एव सूत्रकारस्य क्रियाभावयोश्चेतसि वर्तते" (प्रकाश टीका वाप० ३.७.६६) ।
महाभाष्य की वार्तिक “कर्मस्थभावकानां कर्मस्थक्रियाणां च" (३.१.८७) में 'कर्मस्थभावक' तथा 'कर्मस्थक्रियक' शब्दों को, परस्पर पर्याय न मानते हुए, भिन्न-भिन्न अर्थ का वाचक माना गया है । यहां 'कर्मस्थभावक' का उदाहरण 'प्रासयति देवदत्तम्' (देवदत्त को बैठाता है) 'शाययति देवदत्तम्' (देवदत्त को सुलाता है) इत्यादि प्रयोग हैं तथा 'कर्मस्थक्रियक' के उदाहरण हैं-'गाम् अवरुणद्धि' (गो को रोकता है), 'कटं करोति' (चटाई बुनता है)। इसी प्रसंग में महाभाष्य में 'कर्तृ स्थक्रियक' तथा 'कर्तृ स्थभावक' शब्दों को भी भिन्न-भिन्न अर्थों वाला माना गया है। काशिका (३.१.८७) में उद्धत निम्न कारिका में 'कर्मस्थभावक', 'कर्मस्थक्रियक' तथा 'कर्तृ स्थभावक' और 'कर्तृ स्थक्रियक' इन चारों के अलग-अलग चार उदाहरण दिये गये हैं
कर्मस्थः पचतेर्भावः कर्मस्था च भिदेः क्रिया ।
मासासिभावः कर्तृ स्थः कस्था च गमेः क्रिया ॥ महाभाष्य की प्रदीप टीका में ऊपर की वार्तिक के 'भाव' तथा 'क्रिया' पद की परिभाषा करते हुए कैयट ने कहा कि स्पन्दन (गति अथवा चेष्टा) से रहित साधन के द्वारा साध्य जो धात्वर्थ वह 'भाव' है तथा स्पन्दन-सहित साधन से साध्य धात्वर्थ क्रिया है । द्र० --"अपरिस्पन्दसाधन साध्यधात्वर्थो भावः सपरिस्पन्दसाधनसाध्या तु क्रिया'।
परन्तु वाक्यपदीय के टीकाकार हेलाराज को 'भाव' तथा 'क्रिया' का यह विभाग, परिभाषा अथवा व्यवस्था स्वीकार्य नहीं है। उनकी दृष्टि में 'पच्यते घट: स्वयमेव' (घड़ा स्वयमेव पकता है), जिसे 'कर्मस्थ भावक' का उदाहरण माना गया है, में भी सपरिस्पन्द साधन की स्थिति मानी जा सकती है । द्र० -- “यत्त्वपरिस्पन्दसाधनसाध्यो भाव इत्यादिलक्षणमभिधाय कर्मस्थः पचतेर्भावः इत्यादिकमभिदधति तदग्यव्यवस्थितमिव लक्ष्यते । तथा च पीलुपाके 'घटं पचति' इति घटस्यानलसम्पर्कादवयवक्रियाद्वारेणावयवसंयोगविनाशपूर्वकं पूर्वपूर्वकार्यविनाशे उत्तरोत्तरकार्यद्रव्यविनाशात् सपरिस्पन्दपरमाणुविषयपाकक्रियापि । ततश्चाव्यवस्थितमेववत्' (प्रकाश टीका, वाप० ३.७.६६) ।
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