Book Title: Vyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Author(s): Nagesh Bhatt, Kapildev Shastri
Publisher: Kurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
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धात्वर्थ-निर्णय
१५६
शक्ति माननी चाहिये, अथवा 'यत्न' और 'कृति' दोनों शब्दों को सामान्य 'व्यापार' का वाचक मान लेना चाहिये । इसीलिये ('यत्न' शब्द को 'व्यापार'सामान्य का वाचक मानने के कारण ही) कारके' इस सूत्र के भाष्य में यह कहा गया कि "स्थाली (पतीली) में होने वाले यत्न (सामान्य 'व्यापार') को ‘पच्' धातु के द्वारा कहे जाने पर 'स्थाली पकाती है, यह प्रयोग किया जाता है'- यह विचार यहां पर्याप्त है।
कुत्र उत्पत्तिव्यधिकरण"अर्थः-'कृ' धातु के अर्थ के विषय में भी दो मत हैं। एक मत में उत्पत्ति रूप 'फल' के अधिकरण (प्राश्रय) से भिन्न अधिकरण वाले तथा उत्पत्ति रूप 'फल' के अनुकूल होने वाले व्यापार' को 'कृ' धातु का अर्थ माना जाता है । इस मत में 'कृ' धातु की 'सकर्मकता' भी सिद्ध हो जाती है क्योंकि उत्पत्तिरूप 'फल' से भिन्न आश्रय ('कर्ता') में होने वाले 'व्यापार' का वाचक 'कृ' धातु है इसलिये, 'फल-व्यधिकरण-व्यापार-वाचकत्वं सकर्मकत्वम्' इस, कौण्डभट्ट-अभिमत, परिभाषा के अनुसार भी, 'कृ' धातु 'सकर्मक' बन जाती है। अन्य लाभ इस मत में यह है कि 'कृ' धातु 'कर्मस्थ-भावक' ('कर्मस्थक्रियक') बन जाती है क्योंकि 'कृ' धातु यहाँ 'कर्ता' में न रहने वाले तथा केवल 'कर्म' में रहने वाले 'फल' का बोधक बनता है। यह मत वैयाकरण विद्वानों का है। इसी का निर्देश नागेश ने यहाँ किया है।
फलमात्रार्थकत्वे अकर्मकत्वापत्तियतिवत्-दूसरा मत यह है कि 'कृ' का अर्थ केवल 'फल' अर्थात् 'यत्न' है । उत्पत्ति के अनुकूल 'व्यापार' नहीं। यह मत नैयायिक विद्वानों का है। इस मत में दो दोष उपस्थित होते हैं। पहला यह कि 'कृ' धातु 'अकर्मक' बन जाती है क्योंकि, जिस प्रकार 'यत्न' तथा यत्नानुकूल 'व्यापार' दोनों ही 'कर्ता' में होते हैं इसलिये प्रयत्न अर्थ वाली 'यत्' धातु, “फल-समानाधिकरण-व्यापार-वाचकत्वम् अकर्मकत्वम्" इस परिभाषा के अनुसार, 'अकर्मक' मानी जाती है उसी प्रकार, केवल 'यत्न' अर्थ मानने पर 'कृ' धातु भी 'अकर्मक' बन जायगी।
कर्मस्थभावकत्वाभावात् कर्मकर्तरि यगाद्यनापत्तिः-दूसरा दोष यह है कि 'कृ' धातु 'कर्मस्थभावक' नहीं बन पाती क्योंकि इस मत में 'कृ' का अर्थ केवल 'यत्न' है और 'यत्ल' चेतन का धर्म होने के कारण 'करोति' इत्यादि के 'कर्म', अचेतन 'घट' आदि, में नहीं रह सकता । अतः यहां 'यत्न' रूप 'फल' 'कर्म' में नहीं पाया जाता । इसलिये, केवल 'कर्म' में रहने वाले 'फल' के वाचक धातुओं को ही 'कर्मस्थक्रियक' माने जाने के कारण, 'कृ' धातु को 'कर्मस्थक्रियक' नहीं माना जा सकता।
'कृ' धातु के 'कर्मस्थक्रियक' न होने पर, 'कर्मवत् कर्मणा तुल्यक्रियः' (पा. ३.१.८७) सूत्र से, 'कर्मकर्ता' में 'कर्मवद्भाव' की प्राप्ति नहीं होगी क्योंकि यह सूत्र केवल 'कर्मस्थभावक' तथा 'कर्मस्थक्रियक' धातुओं के 'कर्मों के, जो 'कर्ता' के रूप में विवक्षित होते हैं, 'कर्मवद्भाव' का विधान करता है। इस प्रकार 'कर्मवद्भाव' न होने पर 'क्रियते घटः स्वयमेव' इत्यादि प्रयोगों में 'यक्' आदि प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं हो सकती। यहाँ ‘यक्' से सम्बद्ध 'पादि' पद से 'आत्मनेपद्', 'चिण', 'चिरणवद्भाव' आदि कार्य अभिप्रेत हैं ।
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